भारतीय नस्ल की देसी गायों और गौवंश को बचाने और गौशालाओं के स्वावलम्बी बनने के उपायों पर बोलते हुए सुनील मानसिंगका ने कहा कि गौशाला में होने वाले प्रतिदिन के खर्च से अधिक उसमे पलने वाली गायें या गौवंश दूध, गोबर और गोमूत्र के रूप में वापस कर देती हैं। आवश्यकता है इनके वाणिज्यिक उपयोग की। नागपुर के देवलापार स्थित गो-विज्ञान अनुसन्धान केंद्र के समन्वयक सुनील मानसिंगका केंद्र में आये पत्रकारों के सवाल का जवाब देते हुए बोल रहे थे।
देवलापार अनुसन्धान केंद्र में आये पत्रकारों से बातचीत करते हुए मानसिंगका ने भारतीय पशुधन, जैविक कृषि और गौ आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर तथ्यात्मक विचार रखे। कृषि के क्षेत्र में भूमि सुधार सहित जैविक खेती अपनाने से लेकर अदुग्धा गाय या गोवत्स से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुधरने तक की बात कही। सुनील मानसिंगका ने एक ओर जहां क़त्ल के लिए ले जाई जा रही गायों को बचने के प्रयास में आने वाली कठिनाइयों के बारे में खुलकर बताया वहीं दूसरी ओर गौवंश की उपयोगिता सहित वैज्ञानिक आधार पर गाय के महत्त्व के बारे में भी बताया।
इसी कड़ी में उनसे जब पूछा गया कि भारत में शताब्दियों से गौशाला संस्कृति रही है, इसके बावजूद आज भी आदर्श और स्वावलम्बी गौशालाएं अपवाद ही बनी हुई हैं। ऐसी गौशालाएं शायद ही हों, जिन्हें हम आम जनता के सामने मॉडल के रूप में प्रस्तुत कर सकें। गौशाला संचालकों की मानसिकता आर्थिक स्वावलंबन की ओर न होकर मुख्यतः भावनात्मक दोहन कर दान एकत्र करने वाली है। ऐसे कौन से उपाय अपनाए जाएं जिनसे गौशाला आर्थिक रूप से स्वावलम्बी बन सकें। गौशालाओं के स्वावलम्बन के सवाल का जवाब देते हुए मानसिंगका ने कहा कि स्वावलम्बन, स्वाभिमान इत्यादि मन के भाव हैं इसलिए स्वावलम्बी बनने के लिए पहले परावलंबी होने के भाव को त्यागना होगा। साथ ही स्वावलम्बन की राह में आ रही परेशानियों की तह में जाकर समस्याओं के निवारण के उपाय अपनाने होंगे। हमने गौशालाओं को आर्थिक रूप से निर्भर बनाने के कई उपायों पर कार्य किया है। जरूरत है इन उपायों को अपनाने और अमल में लाने की। उन्होंने कहा कि हमने देसी तथा दूध न देनेवाली गायों को अर्थोपार्जन का जरिया बनाने के मॉडल पर कार्य किया है और इसे स्थापित भी किया है।
सुनील मानसिंगका ने कहा कि देसी गौमूत्र से फसलों की रक्षा और वृद्धि के लिए कई जैविक उर्वरक बनाये जा सकते हैं। साथ ही गोबर से मानव जीवन के दैनिक उपयोग की कई सामग्री का निर्माण हो रहा है। आज मानव की आवश्यकता रसायन रहित भोजन और प्रदुषण रहित वातावरण है। और यह स्थिति गौआधारित खेती से ही संभव है। यदि गौशालाएं इस दिशा में कार्य करें तो उनके बनाये उत्पाद से होने वाली आय से गौशाला का पूरा खर्च वहन किया जा सकता है। उन्होंने आगे इस पर बात करते हुए कहा कि बाजार की सुनिश्चितता और उपलब्धता पर भी ध्यान देना होगा। शहरों में आज गोबर से बने गमलों, धूपबत्ती, हवन सामग्री, सजावट के सामानों की भारी मांग है। इसलिए मार्केटिंग की समुचित व्यवस्था करनी होगी। मानसिंगकाजी फ़िलहाल देश के कई विश्वविद्यालयों सहित अनेक गौ-सेवी संस्थानों के साथ गौ-विज्ञान अनुसन्धान केंद्र देवलापार की अनुसंधानात्मक गतिविधियों का समन्वय कर रहे हैं। साथ ही इनके दिशा निर्देश में अदुग्धा गायों और गोवत्सों के अपशिष्ट का वाणिज्यिक उपयोग करने का प्रशिक्षण भी किसानों को केंद्र द्वारा दिया जाता है।