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महाकुंभ

महाकुंभ भारतीय संस्कृति का प्रतीक है। कुंभ यानि घड़ा, जिसे कलश भी कहा जाता है। भारतीय ज्योतिष में कुंभ एक राशि चिन्ह भी है। दैनिक जीवन में घड़ा या कलश हिंदू संस्कृति में सभी पवित्र गतिविधियों का एक अभिन्न अंग है। कुंभ एक ऐसा पात्र है जिसमें जीवन, आत्मा, जल, ज्ञान और अमृत समाहित है। कुंभ का अर्थ मानव शरीर भी है जो पांच तत्त्वों- जल, पृथ्वी, अग्नि, आकाश और वायु से बना है। मानव जब अपने सच्चे स्वरूप की खोज करने के लिए ज्ञान और आध्यात्मिकता के कुंभ में डुबकी लगता है तो परम तत्व यानि अमृत से साक्षातकर होता है।शरीर के पाँच तत्व प्रकृति के पाँच तत्वों में एकलयता प्राप्त कर लेते हैं।
कुंभ मेला भारतीय अनेकता में एकता का प्रतीक है जहाँ संस्कृतियों, ज्ञान और अध्यात्म का संगम होता है। सन्यासी,वैरागी,तपस्वी, साधु- संत एक स्थान पर एकत्र होते हैं तो प्रेम, एकता, ज्ञान और आध्यात्म के जीवन मूल्य कुंभ समाहित हो जाते हैं, जीवन का घट अमृत से भर जाता है, यह कुंभ कभी सूखता या खाली नहीं होता है।
कुंभ मेला हमें पवित्र नदियों के गीतमय प्रवाह के माध्यम से प्रकृति और धरती माँ के महत्व सिखाता है। कुंभ का आयोजन प्रकृति और मानवता का संगम बनकर आस्था को फिर से जीवंत करता है और कुंभ के रूप में हमारे मन और शरीर को शाश्वत ऊर्जा देता है जो कभी समाप्त नहीं होती।
कलशस्य मुखेविष्णु कण्ठे समाश्रितः | 

मुलेत्वस्य स्थितो ब्रम्हा मध्ये मातृगणः स्मृतः 
कुक्षौ
तु सागरः सर्वे सप्त दीपा
वसुन्धरा 
रुग्वेदो यजुर्वेदो सामवेदोह्रवण || 

अंगैच्छश्र सरितः सर्वे कलशं तु समाश्रितः |

ऐसा माना जाता है और पवित्र शास्त्रों में उल्लेख किया गया है कि कुंभ का मुंह श्री विष्णु की उपस्थिति का प्रतीक है, इसकी गर्दन भगवान रुद्र की है, पितामह ब्रह्मा इस कुंभ का आधार है, केंद्र में सभी देवी-देवता हैं और आंतरिक भाग में संपूर्ण महासागर हैं, चारों वेद कुंभ में समाहित हैं।

समुद्र, नदी, तालाब और कुएं कुंभ के प्रतीक हैं क्योंकि इन स्थानों का पानी सभी तरफ से ढका हुआ है। आकाश में हवा का आवरण है, सूर्य पूरे ब्रह्मांड को अपने प्रकाश से ढकता है, और मानव शरीर कोशिकाओं और ऊतकों से ढका होता है।
कुंभ मेला आस्था और आध्यात्म से जोड़ता है। पौराणिक मान्यता है कि जब समुद्र मंथन हुआ तो उसमें से अमृत का कलश निकला। देवताओं और राक्षसों के बीच इसे पाने के लिए संघर्ष होने लगा। इसी बीच देवराज इंद्र के संकेत पर उनका पुत्र जयंत जब अमृत कुंभ लेकर भागने की चेष्टा कर रहा था, तब कुछ दैत्यों ने उसका पीछा किया। अमृत-कुंभ के लिए स्वर्ग में 12 दिन तक संघर्ष चलता रहा और उस कुंभ से 4 स्थानों पर अमृत की कुछ बूंदें गिर गईं। देवताओं के 12 दिवस नरलोक में 12 वर्ष होते हैं।कुंभ से छलकी अमृत की बूँदें पृथ्वी पर हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में गिरी थीं। इसीलिए प्रत्येक 12 वर्ष में महा कुंभ में स्नान करने के लिए यह महोत्सव होता है।

देवानां द्वादशाहोभिर्मर्त्यै द्वार्दशवत्सरै:।
जायन्ते कुम्भपर्वाणि तथा द्वादश संख्यया:।।

सूर्य, चंद्र और बृहस्पति देवासुर संग्राम के समय अमृत कुंभ की रक्षा करते रहे। इन तीनों का संयोग जब विशिष्ट राशि पर होता है, तब कुंभ योग आता है।

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एक अन्य कथा के अनुसार ऋषि कश्यप की दो पत्नियाँ थीं कद्रु और विनता। कद्रु ने 1000 नाग पुत्रों को जन्म दिया और विनता के दो पुत्र हुए, जिनमें से एक गरुड़ थे।
गरुड़ ने अपनी मां विनता को कद्रु के नाग पुत्रों की दासता से मुक्त कराने के लिए वैकुंठ से अमृत कलश लाने का संकल्प लिया।
विष्णु भगवान की अनुमति से गरुड़ ने अमृत कलश ले आये, भगवान विष्णु की शक्ति से नाग उस कलश नहीं पहुँच सके।
इस दौरान अमृत की बूंदें हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक में गिरीं, जिससे इन स्थानों पर कुंभ मेले का आयोजन आरंभ हुआ।

वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो कुंभ मेले देश की उन कुछ खास जगहों पर आयोजित किये जाते हैं जहां पर एक संपूर्ण ऊर्जा मंडल तैयार किया गया था। हमारी पृथ्वी अपनी धुरी पर घूम रही है इसलिए यह एक ‘अपकेंद्रिय बल’ यानी केंद्र से बाहर की ओर फैलने वाली ऊर्जा पैदा करती है। पृथ्वी के 0 से 33 डिग्री अक्षांश में यह ऊर्जा हमारे तंत्र पर मुख्य रूप से लम्बवत व उर्ध्व दिशा में काम करती है। खास तौर से 11 डिग्री अक्षांश पर तो ऊर्जाएं बिलुकल सीधे ऊपर की ओर जातीं हैं। इसलिए हमारे प्राचीन गुरुओं और योगियों ने गुणा-भाग कर पृथ्वी पर ऐसी जगहों को तय किया, जहां इंसान पर किसी खास घटना का जबर्दस्त प्रभाव पड़ता है। इनमें से अनेक जगहों पर नदियों का समागम है और इन स्थानों पर स्नान का विशेष लाभ भी है। अगर किसी खास दिन कोई इंसान वहां रहता है तो उसके लिए दुर्लभ संभावनाओं के द्वार खुल जाते हैं। कहते हैं कि इस दौरान कुंभ की नदियों का जल अमृत के समान हो जाता है। इसीलिए इसमें स्नान और आचमन करने का महत्व बढ़ जाता है।
कुंभ मेले का इतिहास कम से कम 850 साल पुराना है। कुछ दस्तावेज बताते हैं कि कुंभ मेला 525 बीसी में शुरू हुआ था। गुप्त काल के दौरान से ही इसकी शुरुआत हुई थी। सम्राट हर्षवर्धन के काल में भी इसके प्रमाण देखने को मिलते हैं। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार राजा हर्षवर्धन लगभग हर 5 साल में नदियों के संगम पर एक बड़ा आयोजन करते थे। जिसमें वह अपना पूरा कोष गरीबों और धार्मिक लोगों को दान में दे दिया करते थे। बाद में आदि शंकराचार्य और उनके शिष्यों द्वारा संन्यासी अखाड़ों के लिए संगम तट पर शाही स्नान की व्यवस्था की गई थी। पहले कुंभ उत्सव का स्वरूप छोटा था। कुंभमेला में भाग लेने वाले भक्तों और साधुओं की संख्या क्रमशः बढ़ती गई । शास्त्रों के अनुसार जब बृहस्पति वृषभ राशि में होता है और सूर्य और चंद्रमा मकर राशि में होते हैं, तो प्रयाग में कुंभ आयोजित किया जाता है।

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मकरे च दिवा नाथे ह्मजुगे च बृहस्पतौ कुम्भ
योगोभवेत्तात्र प्रयागे ह्यति दुलारभ 

मेष राशि गते जीवे मकरे चन्द्र भास्करौ | 

अमावस्या तदा योगः कुम्भख्यस्तिरथ नायके ||
प्रयागराज में लगने वाले महाकुंभ का महत्व अधिक माना गया है। दरअसल, यहां तीन पवित्र नदियों गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम है। जिस वजह से यह स्थान अन्य जगहों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है। 144 वर्षों में पहली बार यह अद्भुत संयोग बना है जब महाकुंभ अमृत स्नान के शुभ अवसर पर है।

हमारे देश में हमेशा से मुक्ति ही परम लक्ष्य रहा है। हमारे संस्कृति में आंतरिक विज्ञान को जितनी गहराई से समझा गया है ऐसी समझ पृथ्वी पर किसी दूसरी संस्कृति में नहीं मिलती।

साभार : गौ धाम संदेश

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