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राजनीति की भेंट चढ़ते गौरक्षा आंदोलन

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भारत तथा कुछ अन्य देशों के हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख, पारसी आदि सैकड़ों वर्षों से गौहत्या का विरोध करते आये हैं। भारतीय धर्मों में प्राचीन काल से ही गाय सहित अन्य पशुओं की हत्या का व्यापक रूप से निषेध किया जाता रहा है। विशेषरूप से अंग्रेजी शासनकाल में कर्इ ऐसे आंदोलन हुए जो गाय की हत्या रोकने या रुकवाने के उद्देश्य से किये गये थे। 1860 के दशक में पंजाब में सिखों द्वारा किया गया गौरक्षा आंदोलन सुविदित है। 1880 के दशक में स्वामी दयानंद सरस्वती और उनके द्वारा स्थापित आर्य समाज का समर्थन पाकर गौरक्षा आंदोलन और अधिक विस्तृत हुआ। भारतीय मूल के सभी धर्म गौरक्षा का समर्थन करते हैं। गौरक्षा का समर्थन केवल भारत में ही नहीं, श्रीलंका और म्यांमार में भी इसे भारी समर्थन प्राप्त है। 

श्रीलंका पहला देश है जिसने पूरे द्वीप पर पशुओं को किसी भी प्रकार की हानि पहुंचाने से रोकने वाला कानून पारित किया है। स्वाधीन भारत में विनोबाजी ने गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध की मांग रखी थी। उसके लिए उन्होंने जवाहरलाल नेहरू से कानून बनाने का आग्रह किया था। वे अपनी पदयात्रा में यह सवाल उठाते रहे। कुछ राज्यों ने गौवधबंदी के कानून बनाये। 

सन 1955 में हिंदू महासभा के अध्यक्ष निर्मलचंद्र चटर्जी (लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी के पिता) ने गौवध पर रोक के लिए एक विधेयक प्रस्तुत किया था। उस पर जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा में घोषणा की कि ‘मैं गौवधबंदी के विरुद्ध हूं। सदन इस विधेयक को रद्द कर दे। राज्य सरकारों से मेरा अनुरोध है कि ऐसे विधेयक पर न तो विचार करें और न कोर्इ कार्यवाही।’ धीरे-धीरे समय निकलता जा रहा था। लोगों को लगा कि अपनी सरकार अंग्रेजों की राह पर है। वह आश्वासन देती रही और गौवंश का नाश होता गया। 

इसके बाद 1965-66 में प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, स्वामी करपात्री और देश के तमाम संतों ने इसे आंदोलन का रूप दे दिया। गौरक्षा का अभियान शुरू हुआ। देशभर के संत एकजुट होने लगे, लाखों लोग और संत सड़कों पर आने लगे। इस आंदोलन को देखकर राजनीतिज्ञ लोगों के मन में भय व्याप्त होने लगा। इसकी गंभीरता को समझते हुए सबसे पहले लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को 21 सिंतबर 1966 को पत्र लिखा। उन्होंने लिखा ‘‘गौवधबंदी के लिए लंबे समय से चल रहे आंदोलन के बारे में आप जानती ही हैं। संसद के पिछले सत्र में भी यह मुद्दा सामने आया था और जहां तक मेरा सवाल है मैं यह समझ नहीं पाता कि भारत जैसे एक हिंदू बहुल देश में, जहां गलत हो या सही, गौवध के विरुद्ध ऐसा तीव्र जन-संवेग है गौवध पर कानूनन प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया जा सकता?’’ इंदिरा गांधी ने जय प्रकाश नारायण की यह सलाह नहीं मानी। परिणाम यह हुआ कि सर्वदलीय गौरक्षा महाभियान ने 7 नंबवर 1966 को दिल्ली में विराट आंदोलन किया। दिल्ली के इतिहास का वह सबसे बड़ा प्रदर्शन था। जिसमें संसद का घेराव करते कर्इ संत गौरक्षक पुलिस की गोलियों से मारे गये।

12 अप्रैल 1978 को डॉ. रामजी सिंह ने एक निजी विधेयक रखा, जिसमें संविधान की धारा 48 के निर्देश पर अमल के लिए कानून बनाने की मांग थी। संविधान की धारा 48 में यह व्यवस्था है कि राज्य पशुधन विशेषकर गौवध तथा अन्य दुधारू और भार वाहक पशुओं की तस्करी रुकवाने के लिए उनकी हत्या पर प्रतिबंध लगाने के लिए कदम उठाएगी। यह राज्यों पर छोड़ा है कि वे लोगों की भावनाओं और रीति-रिवाजों के अनुरूप गौरक्षा के लिए कानून बनाएंगे।

21 अप्रैल 1979 को विनोबा भावे ने अनशन शुरू कर दिया। 5 दिन बाद प्रधानमंत्री मोरारजी देसार्इ ने कानून बनाने का आश्‍वासन दिया और विनोबा ने उपवास तोड़ा। 10 मर्इ 1979 को एक संविधान संशोधन विधेयक पेश किया गया, जो लोकसभा के विघटित होने के कारण अपने आप समाप्त हो गया। इंदिरा जी के दोबारा शासन में आने के बाद 1981 में पवनार में गौसेवा सम्मेलन हुआ। उसके निर्णयानुसार 30 जनवरी 1982 की सुबह विनोबा ने उपवास रखकर गौरक्षा के लिए सौम्य सत्याग्रह की शुरुआत की। वह सत्याग्रह 18 साल तक चलता रहा। लेकिन सरकार के कानों पर जूँ नहीं रेंगी। अन्ततः आज तक गौवध पर केंद्र सरकार किसी भी तरह का कानून नहीं ला पायी है।  

बाक्स सन 1966 के अक्टूबर-नवंबर में अखिल भारतीय स्तर पर गौरक्षा आंदोलन चला। भारत साधु समाज, सनातन धर्म, जैन धर्म आदि सभी भारतीय धार्मिक समुदायों ने इसमें बढ़-चढ़कर भाग लिया। 7 नवंबर 1966 को संसद पर हुये ऐतिहासिक प्रदर्शन में देशभर के लाखों लोगों ने भाग लिया। इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने निहत्थे हिंदुओं पर गोलियां चलवा दी थी जिसमें अनेक गौ-भक्तों का बलिदान हुआ था। इस गौरक्षा आंदोलन में स्वामी ब्रह्मानंद का विशेष योगदान रहा, इन्होंने प्रयागराज से दिल्ली तक सैकड़ों समर्थकों के साथ पैदल यात्रा की तथा गुलजारी लाल नंदा के आवास को घेरकर अनशन किया। संसद भवन में घुसने के प्रयास पर भयानक लाठी चार्ज का सामना किया। इसके बाद स्वामी ब्रह्मानंद ने ठाना कि गौरक्षा के लिए कानून बनाने को संसद में निर्वाचित होकर आना पडेगा, 1967 में हामीरपुर लोकसभा यूपी से भारतीय संसद में संत सांसद के रूप में निर्वाचित होकर पहुंचे तथा सदन में गौरक्षा के लिए बेबाक राय रखी। 

चारा फ़सलों की खेती

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पशुओं के भोजन में हरे चारे की एक खास भूमिका होती है. हरे चारे के रूप में किसान अनेक फसलों को इस्तेमाल करते हैं. 

बारिश में तो हरा चारा खेतों की मेंड़ या खाली पड़े खेतों में आसानी से मिल जाता है, परन्तु सर्दी या गरमी में पशुओं के लिए हरे चारे का इंतजाम करने में परेशानी होती है. ऐसे में खेत के कुछ हिस्से में हरे चारे की बोआई करने से साल भर चारा मिलता रहता है.

मक्का, ज्वार जैसी फसलों से केवल 4-5 माह ही हरा चारा मिल पाता है, इसलिए किसान कम पानी में 10 से 12 महीने हरा चारा देने वाली फसलों को चुन सकते हैं.

इसके लिए किसान बरसीम, नेपियर घास, रिजका वगैरह लगाकर हरे चारे की व्यवस्था साल भर बनाए रखते हैं।

बरसीम : पशुओं के लिए बरसीम बहुत ही लोकप्रिय चारा है, क्योंकि यह बहुत ही पौष्टिक व स्वादिष्ठ होता है. यह साल के पूरे शीतकालीन समय में और गरमी के शुरू तक हरा चारा मुहैया करवाती है. बरसीम सर्दी के मौसम में पौष्टिक चारे का एक उत्तम जरिया है. इसमें रेशे की मात्रा कम और प्रोटीन की औसत मात्रा 20 से 22 फीसदी होती है. इसके चारे की पाचनशीलता 70 से 75 फीसदी होती है. इसके अलावा इसमें कैल्शियम और फास्फोरस भी काफी मात्रा में पाए जाते हैं. इसके चलते दुधारु पशुओं को अलग से खाली दाना वगैरह देने की जरूरत कम पड़ती है.

नेपियर घास : किसानों के बीच नेपियर घास तेजी से लोकप्रिय हो रही है. इसे संकर हाथी घास भी कहते हैं. गन्ने की तरह दिखने वाली नेपियर घास लगाने के महज 50 दिनों में विकसित होकर अगले 4 से 5 साल तक लगातार पशुओं के लिए पौष्टिक आहार की जरूरत को पूरी कर सकती है. इसे मेंड़ पर लगाकर खेत में दूसरी फसलें उगा सकते हैं. इसमें सिंचाई की जरूरत भी नहीं पड़ती है. प्रोटीन और विटामिन से भरपूर नेपियर घास पशुओं के लिए एक उत्तम आहार की जरूरत को पूरा करता है. दुधारु पशुओं को लगातार यह घास खिलाने से दूध उत्पादन में भी वृद्धि के साथ ही रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है. खेत की जुताई और समतलीकरण यानी एकसार करने के बाद नेपियर घास की जड़ों को 3-3 फुट की दूरी पर रोपा जाता है. नेपियर घास का उत्पादन प्रति एकड़ तकरीबन 300 से 400 क्विंटल होता है. इस घास की खूबी यह है कि इसे कहीं भी लगाया जा सकता है. एक बार घास की कटाई करने के बाद उसकी शाखाएं फिर से फैलने लगती हैं और 40 दिन में वह दोबारा पशुओं के खिलाने लायक हो जाता है. प्रत्येक कटाई के बाद घास की जड़ों के आस-पास गोबर की सड़ी खाद या हल्का यूरिया का छिड़काव करने से इसमें तेजी से बढ़ोत्तरी होती है.

रिजका (लूर्सन) : यह किस्म चारे की एक अहम दलहनी फसल है, जो जून माह तक हरा चारा देती है. इसे बरसीम की अपेक्षा सिंचाई की जरूरत कम होती है. रिजका को 20 से 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 20 से 30 सेंटीमीटर के अंतर से लाइनों में बोआई करनी चाहिए. अक्टूबर से नवम्बर माह के मध्य का समय बोआई के लिए सबसे अच्छा माना जाता है. रिजका अगर पहली बार बोया गया है, तो रिजका कल्चर का प्रयोग करना चाहिए यदि कल्चर उपलब्ध न हो तो जिस खेत में पहले रिजका बोया गया है, उसमें से ऊपरी परत से 30 से 40 किलोग्राम मिट्टी निकालकर जिसमें रिजका बोना है, उसमे मिला देना चाहिए.

अधिक उत्पादन क्षमता के आधार पर चारा फसलों की उन्नत प्रजातियों का चयन करना चाहिए. चारा फसलों  को उगाने के लिए उन्नत कृषि तकनीक का उपयोग करें. चारा फसलों की उचित बढ़वार के लिए खेत में संतुलित पोषक तत्वों का उपयोग आवश्यक है. इन फसलों में भी उचित जल प्रबन्ध व पौधसंरक्षण के उपाय अपनाना चाहिए. सूखा सहन करने वाली चारा फसलों एवं किस्मों की खेती  करना चाहिए. सघन  फसल चक्रों में कम अवधि वाली चारा फसलों का समावेश करना चाहिए. 

खाली, परती अथवा बंजर भूमि में चारा फसलों की खेती को बढ़ावा देने के साथ ही ग्राम पंचायतों के सरंक्षण में गावों में उपलब्ध भूमि में आवश्यक रूप से चारागाह विकसित होना चाहिए.

चरागाहों को पुनर्जीवित करना ज़रूरी

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पर्याप्त चरागाह उपलब्ध न होने के कारण 10 में से 9 पशुओं को सूखे कचरे पर गुजारा करना पड़ता है. देश भर की हालत लगभग एक जैसी है. 

देश में फिलहाल लगभग एक करोड़ तीस लाख हेक्टेयर भूमि ही स्थायी चरागाह के लिए वर्गीकृत है, जो काफी नहीं है. इसके अलावा उसकी हालत भी अच्छी नहीं है. इसलिए बंजर, परती तथा खेती के अयोग्य लाखों हेक्टेयर जमीन से जो कुछ भी मिल पता है, पशु वही खाते हैं. 

हमारे ग्राम्य जीवन में पशुधन की अहम भूमिका है. गांवों में आज भी ईंधन, बोझा ढोने और खींचने का मुख्य साधन पशुधन ही है. वहीं खाद्य पदार्थ और गांवों के उद्योगों का कच्चा माल बड़ी मात्रा में इनसे मिलता है. देश का किसान केवल अन्न का उत्पादक नहीं है, उसके नित्य जीवन में खेती और पशु-पालन एक दूसरे के पूरक हैं. लेकिन पानी और चारे की कमी के कारण इन जानवरों के सामने संकट खड़ा हो गया है. 

बंगलूर की इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल एण्ड इकोनॉमिक चेंज के एक सर्वेक्षण के मुताबिक सूखे और हरे दोनों तरह के चारे की कमी लगातार बनी हुई है. 

ज्यादातर मवेशियों को किसान फसलों के डंठल वगैरह खिलाते हैं. बाकी को बंजर जमीन में, नदियों और सड़कों के किनारे, खाली पड़ी भूमि और बिरले होते जा रहे जंगलों में अपना नसीब आजमाने के लिए छोड़ दिया जाता है.

अधिकतर चरागाहों पर दबंगों का कब्ज़ा है. चरागाह को मुक्त कराने के लिए कई बार प्रयास किए गए. लेकिन वे महज खानापूर्ति तक ही सीमित होकर रह जाते हैं. चरागाहों का क्षेत्रफल कम होने के कारण पशुओं की उत्पादकता भी घटती है. 

चरागाहों को सुरक्षित व सरंक्षित रखने के लिए प्रशासनिक स्तर पर जिम्मेदारी और जबावदेही सुनिश्चित होने के बाद भी वे परिणाम नहीं आए, जो आने चाहिए थे. चरागाह खत्म होने से पर्यावरण पर नकारात्मक असर पड़ता है. पारिस्थितिकी संतुलन पर भी बुरे प्रभाव पड़ते हैं, इसलिए चरागाहों के रखरखाव की ठोस योजना होनी चाहिए. 

चरागाहों को विकसित और सरंक्षित करने के लिए राजस्थान और आंध्र प्रदेश में वर्ष 2006 में एक कार्यक्रम ‘चारागाह भूमि विकास और प्रबंधन’ शुरू किया गया. इसके तहत सामाजिक संस्था और किसानों ने मिलकर निजी चरागाह तैयार किया. इस तरह के कार्यक्रम पूरे देश में चलाने की ज़रूरत है. बरसात के मौसम में चरागाहों को पुर्निजीवित और हरभरा बनाने के लिए व्यापक स्तर पर अभियान चलाया जाना चाहिए. 

स्टाइलो, अंजन, दीनानाथ, धामन आदि घास उगाने से चारे की समस्या को काफी हद तक कम किया जा सकता है. नेपियर एवं गिनी घास से भी चारे को संकट कम करने में मदद मिल सकती है. एक हेक्टेयर भूमि पर उगी घास से 15 पशुओं को साल भर के लिए चारा मिल सकता है. 

उत्तर प्रदेश में भी बीते दशको में चरागाह का क्षेत्रफल तेजी से घटा है. प्रदेश में सिकुडते चरागाह जानवरों का पेट भरने में नाकाम साबित हो रहे हैं. 

प्रदेश के अधिकतर चरागाह पर दबंगों के कब्जे हैं या फिर वे ग्राम सभा के नक्शे से ही गायब हैं. जिले में दबंगों के कब्जे से चरागाह को मुक्त कराना प्रशासन के लिए बड़ी चुनौती है. प्रधान और लेखपालों की मिली भगत से बड़े सुनियोजित ढंग से गांवों के चरागाह को खत्म किया जा रहा है. 

हरे चारे के भण्डारण की विधियाँ

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पशुओं को स्वस्थ रखने के लिए पर्याप्त मात्रा में पौषिटक चारे की आवश्यकता होती है. इन चारों को पशुपालक या तो स्वयं उगाता हैं या फिर कहीं और से खरीद कर लाता है. 

पशुओं को अधिकतर हरा चारा खिलाया जाता है. लेकिन हर समय हरा चारा उपलब्ध न होने पर हरे चारे को सुखाकर भविष्य में प्रयोग करने के लिए भंडारण कर लिया जाता है, जिससे चारे की कमी के समय उसका प्रयोग पशुओं को खिलाने के लिए किया जा सके. 

हरे चारे का भंडारण करने से उसमें पोषक तत्व काफ़ी कम रह जाते हैं, लेकिन इसी चारे का भंडा़रण यदि वैज्ञानिक तरीके से किया जाये तो उसकी पौषिटकता में कोर्इ कमी नहीं आती है. बल्कि कुछ खास तरीकों से इस चारे की पौषिटकता को काफी हद तक बढाया भी जा सकता है.

इसके लिए हरे चारे या घास को इतना सुखाया जाता है कि उसमें नमी कि मात्रा 15-20 प्रतिशत तक ही रह जाए. इससे पादप कोशिकाओं तथा जीवाणुओं की एन्जाइम क्रिया रूक जाती है, लेकिन इससे चारे की पौष्टिकता में कमी नहीं आती. इसमें लोबिया, बरसीम, रिजका, लेग्यूम्स तथा ज्वार, नेपियर, जवी, बाजरा, ज्वार, मक्की, गिन्नी, अंजन आदि घासों का प्रयोग किया जाता है. लेग्यूम्स घासों में सुपाच्य तत्व अधिक होते हैं तथा इसमें प्रोटीन व विटामिन ए डी व र्इ भी प्रर्याप्त मात्रा में पाए जाते है. 

चारा सुखाने के लिए तीन विधियों में से कोर्इ भी विधि अपनायी जा सकती है

  1. चारे को परतों में सुखाना: जब चारे की फसल फूल आने वाली अवस्था में होती है, तब उसे काटकर परतों में पूरे खेत में फैला देते हैं तथा बीच-बीच में उसे पलटते रहते हैं जब तक कि उसमें पानी की मात्रा लगभग 15 प्रतिशत तक न रह जाए. इसके बाद इसे इकठ्ठा कर लिया जाता है तथा ऐसे स्थान पर जहां वर्षा का पानी न आ सके इसका भंडारण कर लिया जाता है.
  2. चारे को गट्ठर में सुखाना: इसमें चारे को काटकर 24 घण्टों तक खेत में पड़ा रहने देते हैं. इसके बाद इसे छोटी-छोटी ढेरियों अथवा गट्ठरों में बांध कर पूरे खेत में फैला देते हैं. इन गट्ठरों को बीच-बीच में पलटते रहते हैं जिससे नमी की मात्रा घट कर लगभग 18 प्रतिशत तक हो जाए. 
  3. चारे को तिपार्इ विधि द्वारा सुखाना – जहां भूमि अधिक गीली रहती हो अथवा जहां वर्षा अधिक होती हो ऐसे स्थानों पर खेतों में तिपाइयां गाढकर चारे की फसलों को उन पर फैला देते हैं. इस प्रकार वे भूमि के बिना संपर्क में आए हवा व धूप से सूख जाती है. 

कर्इ स्थानों पर घरों की छत पर भी घासों को सुखाया जाता है.

हरे चारे की कमी होने पर साइलेज का प्रयोग पशुओं को खिलाने के लिए किया जाता हैं.

साइलेज लगभग सभी घासों से अकेले अथवा उनके मिश्रण से बनाया जा सकता है. जिन फसलों में घुलनशील कार्बोहार्इडे्रटस अधिक मात्रा में होते हैं जैसे कि ज्वार मक्की, गिन्नी घास नेपियर सिटीरिया आदि, साइलेज बनाने के लिऐ उपयुक्त होती है. फली दार जिनमें कार्बोहाइड्रेटस कम तथा नमी की मात्रा अधिक होती हैं, को अधिक कार्बोहाइडे्रटस वाली फसलों के साथ मिलाकर अथवा शीरा मिला कर साइलेज के लिए प्रयोग किया जा सकता है. 

साइलेज बनाने के लिए जिस भी हरे चारे का इस्तेमाल करना हो उसे खेत से काट कर 2 से 5 सेन्टीमीटर के टुकड़ों में कुटटी बना लेना चाहिए, ताकि ज्यादा से ज्यादा चारा साइलो पिट में दबा कर भरा जा सके. कुटटी किया हुआ चारा खूब दबा-दबा कर ले जाते हैं. ताकि बरसात का पानी ऊपर न टिक सके फिर इसके ऊपर पोलीथीन की शीट बिछाकर ऊपर से 18-20 सेमी मोटी मिटटी की पर्त बिछा दी जाती है. इस परत को गोबर व चिकनी मिटटी से लीप दिया जाता है. दरारें पड़ जाने पर उन्हें मिटटी से बन्द करते रहना चाहिए ताकि हवा व पानी गडढे में प्रवेश न कर सके. लगभग 45 से 60 दिनों मे साइलेज बन कर तैयार हो जाता है. जिसे गडढे को एक तरफ से खोलकर मिटटी व पोलोथीन शीट हटाकर आवश्यकतानुसार पशु को खिलाया जा सकता है. साइलेज को निकालकर गडढे को पुन: पोलीथीन शीट व मिटटी से ढक देना चाहिए. 

भारतीय चरागाह एवं चारा अनुसंधान संस्थान, झांसी

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चरागाह एवं चारे की उन्नत प्रजातियों के विकास और उनके प्रबंधन एवं अनुरक्षण हेतु भारत सरकार ने वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई की ऐतिहासिक नगरी झांसी में ‘भारतीय चरागाह एवं चारा अनुसंधान संस्थान’ की सन् 1962 में स्थापना की. 

झांसी में लगभग सभी प्रमुख घासें पाई जाती हैं, इसी दृष्टि से यहाँ संस्थान की स्थापना की गई. बाद में वर्ष 1966 में इसका प्रशासनिक नियंत्रण भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली को सौंप दिया गया.  

संस्थान ने अपने स्थापना काल से ही चारा उत्पादन व उपयोग के विभिन्न पहलुओं पर अनुसंधान कर राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसका प्रचार-प्रसार करने और समन्वित विकास करने में अहम् भूमिका निभायी है. संस्थान में अखिल भारतीय चारा समन्वित परियोजना का संचालन भी किया जा रहा है. इसके अतिरिक्त संस्थान के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए देश-विदेश के सहयोग से अन्य परियोजनाएं भी सफलतापूर्वक संचालित की जा रहीं हैं.

जलवायु तथा कृषि की क्षेत्रीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर भारत के अन्य भागों में इस संस्थान के तीन क्षेत्रीय अनुसंधान केन्द्र स्थापित किए गए हैं, जो अंबिका नगर (राजस्थान), धारवाड़ (कर्नाटक) एवं पालमपुर (हिमाचल प्रदेश) में स्थित हैं.

‘भारतीय चरागाह एवं चारा अनुसंधान संस्थान’ के मुख्य लक्ष्य हैं – चारा फसलों के आनुवांशिक संसाधनों का संकलन, संवर्धन, संग्रहण एवं उन्नत किस्मों का विकास करना. चारा फसलों एवं चरागाहों के विकास, उत्पादन एवं उपभोग पर आधारभूत तथा योजनाबद्ध अनुसंधान. चारा फसलों एवं चरागाहों पर होने वाले अनुसंधान कार्यों का समन्वयन एवं संकलन. चारा फसलों एवं चरागाहों के क्षेत्र में विषेषज्ञता एवं सलाह उपलब्ध कराना और पशुपालन व्यवसाय के लिए मानव संसाधन का विकास एवं तकनीकी स्थानान्तरण.

संस्थान अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अनेक विभागों/अनुभागों एवं इकाइयों में विभाजित है.

अनुसंधान विभाग:

1. फसल सुधार, 2. फसल उत्पादन, 3. चरागाह एवं वन चरागाह प्रबंधन, 4. पादप पशु संबंध, 5. बीज तकनीकी 6. फार्म मशीनरी एवं कटनोत्तर तकीनीकी, 7. सामाजिक विज्ञान एवं चारा परियोजना समन्वयन इकाई

केन्द्रीय अनुभाग/इकाई:

1.स्थापना 2.संपरीक्षा एवं लेखा 3. बीजक एवं रोकड़ 4. सम्पदा, 5. भंडार, 6. राजभााषा 7. मुद्रणालय 8. सुरक्षा, 9. पुस्तकालय 10. वाहन 11. पी.एम.ई. 12. मानव संसाधन विकास 13. प्रक्षेत्र 14. ए.के.एम.यू. 15. फोसू एवं 16. चिकित्सा इकाई।

इसके अतिरिक्त संस्थान की गतिविधियों को सही दिशा एवं मार्गदर्शन हेतु शोध सलाहकार समिति, संस्थान के निदेशक की अध्यक्षता में एक प्रबंध समिति गठित है जिसमें कुछ संकाय सदस्य एवं भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अधीनस्थ संस्थानों तथा राज्य सरकारों के कुछ वरिष्ठ अधिकारी इस समिति के सदस्य हैं. 

इसके अलावा अन्य सलाहकार समितियां भी गठित हैं. जैसे प्रशिक्षण कार्यक्रम समिति, पुस्तकालय समिति, परिसर विकास समिति, प्रेस प्रचार एवं प्रकाशन समिति, राजभाषा कार्यान्वयन समिति इत्यादि. 

सुविधाएं:

संस्थान सूचना प्रबंध एवं आंकडे विश्लेषण के लिए इंटरनेट व ई-मेल, लोकल एरिया नेटवर्क से संबद्ध मल्टीमीडिया युक्त पर्सनल कम्प्यूटर्स, नेटवर्क से जुड़ी इरिक्स एवं यूनिक सेवाएं, इरनेट के माध्यम से राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क की कनेक्क्टिविटी, लगभग 10897 पुस्तकों एवं वर्ष भर देश विदेश से प्राप्त अनेक पत्र-पत्रिकाओं तथा शोधरत छात्रों को पुस्तकालय परामर्श की उपलब्ध सुविधायुक्त सुसज्जित पुस्तकालय, हिन्दी/अंग्रेजी की छपाई हेतु मुद्रणालय, छायांकन कक्ष, आधुनिक सुविधायुक्त प्रोजेक्टर, बहुसुविधायुक्त फोटो स्टेट मशीन, कृषि तकनीकी प्रदर्षन खंड, अन्तः संचार टेलीफोन प्रणाली से जुडे सभी विभाग/अनुभाग इत्यादि विषेष आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित हैं. 

‘भारतीय चरागाह एवं चारा अनुसंधान संस्थान’ अनुसंधान एवं विकास के क्षेत्र में विभिन्न राष्ट्रीय संस्थाओं के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के सहयोग में भी कार्य कर रहा है.

संस्थान विभिन्न कृषि पारिस्थितिकी अंचल एवं फसल पद्धति के लिए उपयुक्त चारा फसलों की नई-नई प्रजातियों का विकास तथा सघन चारा उत्पादन पद्धतियां, अन्न चारा उत्पादन पद्धति, कृषि वन चरागाह एवं कृषि वानिकी पद्धतियों द्वारा अधिकाधिक चारा प्राप्त करने के लिए अनुसंधान कार्य करके अपनी तकनीकों को किसानों तक लगातार पहुंचा रहा है. 

संस्थान कम लागत वाले कृषि यंत्रों को भी विकसित करने में महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है. इसके साथ ही किसानों को तकनीकियों की जानकारी देने हेतु संस्थान परिसर में किसान मेला, संगोष्ठी, पशुधन दिवस एवं शोध यात्राओं का आयोजन किया जाता है. 

संस्थान के वैज्ञानिक देश के विभिन्न क्षेत्रों में जाकर गांवों में नयी तकनीकों का प्रदर्शन करते हैं और किसानों को नमूना स्वरूप विभिन्न चारा फसलों के बीज उपलब्ध कराए जाते हैं. संस्थान के मानव संसाधन विकास अनुभाग द्वारा वर्ष भर हिन्दी/अंगेजी एवं मिली जुली भाषा में विभिन्न प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाते हैं. दूरदर्शन और आकाशवाणी के माध्यम से भी विभिन्न विषयों पर किसानों को जानकारी देने हेतु वैज्ञानिकों द्वारा वार्ता प्रसारित की जाती है. कृषि से जुड़ी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में वैज्ञनिकों के लेख आदि भी प्रकाशित होते रहते हैं.

गायब हो गयीं चारागाहों की ज़मीनें

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चारागाह पशुरक्षण और पशु संवर्द्धन का आधार है। पशुधन इस देश के कृषि, व्यापार, उद्योग इत्यादि अनेक उपयोगी विषयों के मूल में पशुधन ही है। सच तो यह है कि देश के धर्म, संस्कृति, कृषि, व्यापार, उद्योग, समृध्दि और सामाजिक व्यवस्था तथा जनता की शांति व सुरक्षितता की जीवन-रेखा देश के समृध्द चरागाह ही हैं। 

पशुओं के चरने की जमीन को चरागाह कहते हैं। कहीं-कहीं इसे गोचर भूमि भी कहा जाता है। सौराष्ट्र में उसे घास की वीडी कहते हैं। जो देश स्वयं को उद्योग प्रधान कहलाते हैं और जिनके उद्योगों को भी भारत के कृषि उत्पादों पर आधारित रहना पड़ता है वे भी पशुओं के परिपालन की ओर ध्यान देते है और संभव हो उतनी ज्यादा जमीनें चरागाह के लिए सुरक्षित रखते हैं। ब्रिटेन खुद के लिए अनाज आयात करके भी और जापान रूर्इ आयात करके भी चरागाहों को सुरक्षित रखते हैं। क्योंकि उनको चरागाहों और पशुओं का महत्व समझ में आया है।इंग्लैंड हरेक पशु के लिए औसतन 3.5 एकड़ जमीन चरने के लिए अलग रखता है। जर्मनी 8 एकड़, जापान 6.7 एकड़ और अमेरिका हर पशु के लिए औसतन 12 एकड़ जमीन चरनी के लिए अलग रखता है। इसकी तुलना में भारत में एक पशु के लिए चराऊ जमीन 1920 में 0.78 एकड़ अर्थात अंदाजन पौने एकड़ थी। अब यह संख्या घटकर प्रति पशु 0.09 एकड़ हो गर्इ है। अर्थात अमेरिका में 12 एकड़ पर 1 पशु चरता है जबकि भारत में एक एकड़ पर 11 पशु चरते हैं। सिर्फ एक ही साल में भारत में चारागाहों की साढ़े सात लाख एकड़ जमीन का नाश कर दिया गया। 1968 में गोचर भूमि 3 करोड़ 32 लाख 50 हजार एकड़ थी, जो 1969 में घटकर 3 करोड़ 25 लाख एकड़ हो गर्इ। और अगले पांच सालों में अर्थात 1974 में और ढार्इ लाख एकड़ कम होकर 3 करोड़ 22 लाख 50 हजार एकड़ हो गर्इ। इस तरह सिर्फ छह सालों में 10 लाख एकड़ गोचर भूमि का नाश किया गया। वर्तमान में गोचर भूमि का कोर्इ प्रमाणिक आंकड़ा ही उपलब्ध नहीं है। फिर भी किसानों का विकास करने की, गरीबों को रोजी दिलाने का वादा करने वाले, विशेषकर किसानों, पशुपालकों व गांव के कारीगरों के वोट से चुनाव जीतने वाले किसी भी विधानसभा या लोकसभा के सदस्य ने उसका न तो विरोध किया, न ही उसके प्रति चिन्ता व्यक्त की है। हमारे देश के धर्म, संस्कृति, समृध्दि व सलामती की आधारशिला हमारे पशु थे और पशुओं की जीवन- रेखा हमारे चारागाह। हमारी गायों को कत्लखाने ढकेलने की साजिश के एक भाग के रूप में अंग्रेजों ने चरगाहों का नाश कर दिया। इस्लाम के आक्रमण के समय तलवार के सामने तलवारें टकरार्इ थीं, लेकिन यूरोपीय आक्रमण अलग ही प्रकार का था। उसमें भलार्इ और भोलेपन के सामने कपट व नीचता टकरायी, एकवचनीपन और नीति के खिलाफ दोगलापन व दगाबाजी टकरायी जिसमें भारतवासियों की पराजय हुर्इ। इस कल्पनातीत युध्द में भारत ने दो सौ वर्षों तक जो खून रिसते जख्म सहे हैं, वह खून तो शायद अगर हम अब भी सावधान हो जायें तो 100-200 सालों में बहना बंद हो जायेगा, लेकिन इन जख्मों को भरने में शायद एक हजार साल लग जायेंगे।आज समाज के लिए चरागाह जीवन मरण का और मूलभूत विषय है। क्योंकि जब तक चरनियां भरपूर मात्रा में फिर से विकसित नहीं होंगी, तब तक घर-घर में फिर से गाय को परिवार के सदस्य की तरह नहीं रख सकेंगे। जब तक हरेक घर में गाय फिर से बांधी नहीं जायेगी, तब तक हिंदू प्रजा नाममात्र की हिंदू रहेगी। हिंदू की तरह जी नहीं पाएगी। 

सुप्रीम अदालत ने गोकशी को ग़लत माना

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एक तरफ गोकशी को लेकर देश भर में सुप्रीम अदालत ने गोकशी को ग़लत माना सुप्रीम कोर्ट की सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ गोकशी पर रोक को सही ठहरा चुकी है. 

इस संविधान पीठ की अध्यक्षता करने वाले तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश आरसी लाहोती ने सुप्रीम कोर्ट के ही 47 साल पुराने फैसले को पलट दिया था. 

वर्ष 1958 में सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने गोकशी पर रोक लगाने वाले बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कानून को गलत बताते हुए रद्द कर दिया था. उस फैसले में कोर्ट ने कहा था कि गोकशी या बैल सांड आदि की कटाई पर पूरी तरह रोक लगाना जनहित में नहीं है. इसके अलावा कोर्ट ने यह भी कहा था कि गोमांस या भैंसे का मांस भारत मे बड़ी संख्या में लोगों के भोजन का हिस्सा है. गरीब लोग इससे अपनी प्रोटीन आदि की जरूरत पूरी करते हैं. साथ ही कोर्ट ने कहा था कि जो गायें दूध नहीं देतीं या जो बैल खेती या किसी काम के नहीं हैं, उन्हें रखना बेकार है, उनकी कटाई हो जानी चाहिए.

लेकिन 47 साल बाद 26 अक्टूबर 2005 को सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 1958 का फैसला पलट दिया. कोर्ट ने गोमांस और भैंसे के मांस को भोजन का महत्वपूर्ण जरिया  मानने की दलील खारिज कर दी. कोर्ट ने कहा कि भारत में अब भोजन की कमी की समस्या नहीं है. यहां ज्यादा प्रोटीन वाला भोजन उपलब्ध है. समस्या सिर्फ उसके सही वितरण की है।

इस फैसले में कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 48 में गोकशी रोकने की सरकार की जिम्मेदारी का भी हवाला दिया. कोर्ट ने गुजरात राज्य बनाम मिर्जापुर मोती कुरैशी कसाब जमात व अन्य के बारे में दिए गए अपने इस फैसले के पैराग्राफ़ 67 में कहा था कि भारत के हर नागरिक और राज्य को जीवित प्राणी के प्रति सहृदय होना चाहिए. उसके प्रति दया की भावना होनी चाहिए.

फ़ैसले में कहा गया कि जीवित प्राणियों के प्रति सहृदयता की अवधारणा संविधान के अनुच्छेद 51ए जी में दी गई है, जो कि भारत की सांस्कृतिक विरासत पर आधारित है. ये महात्मा गांधी, बिनोवा भावे, महावीर, बुद्ध नानक आदि की भूमि है. दुनिया के किसी भी हिस्से में कोई भी धर्म या पवित्र ग्रन्थ क्रूरता का पाठ नहीं पढ़ाता और न ही क्रूरता को बढ़ावा देता है. भारतीय समाज बहुलता का समाज है। यहां अनेकता में एकता है. सभी एक सुर में कहते हैं कि किसी भी जीवित प्राणी के प्रति क्रूरता समाप्त होनी चाहिए. 

उस फैसले के इन अंशों को अहिंसा के दर्शन रखने वाले जैन पर्व पर्युषण के दौरान मांस बिक्री रोकने को सही ठहराने वाले फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने दर्ज किए हैं. उस फैसले में कोर्ट ने गाय और बैलों की उपयोगिता और गोबर के महत्व को भी दर्ज किया है. 

संविधान में गोकशी पर रोक की सलाह

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गोकशी भारत में एक विवादास्पद विषय बन गया है, इसीलिए गोकशी को लेकर बनाये जाने वाले क़ानून प्रभावी नहीं हो पाते. जबकि धर्म और आस्था ही नहीं, सामाजिक रूप से भी गोहत्या का सदैव निषेध होता रहा है. गोकशी रोकने के लिये भारत के विभिन्न राज्यों में कानून भी बनाये गये हैं।

संविधान निर्माताओं ने राज्यों को दिए नीति-निर्देशक सिद्धांतों में गौवध एवं अन्य दुधारू पशुओं के वध पर रोक लगाने का परामर्श दिया है. 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 48 के मुताबिक राज्य, कृषि और पशुपालन को आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों के माध्यम से बेहतर बनाने की कोशिश करेंगे. हालांकि इस अनुच्छेद में किसी भी राज्य के लिए इस कानून को बनाने की बाध्यता नहीं रखी गई. 

संविधान लागू होने के तुरंत बाद अधिकांश राज्यों ने गाय के संरक्षण और उसके वध पर प्रतिबंध लगाने के लिए कानून बनाया. ‘असम मवेशी संरक्षण अधिनियम’ 1950 में ही आ गया. उसके बाद अधिकांश राज्यों ने अपने यहां 1955 में कानून बनाए. फिर उसके बाद के बरस में भी कानून बनते रहे.

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 48 (ए) पर्यावरण की सुरक्षा और सुधार तथा वनों और वन्यजीवों की सुरक्षा की बात करता है. संविधान (42 वाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 द्वारा अनुच्छेद 48 (ए) जोड़ा गया. जिसमें गायों और बछड़ों तथा अन्य दुधारू और वाहक पशुओं की नस्लों के परिरक्षण और सुधार के लिए और उनके वध का प्रतिषेध करने के लिए कदम उठाने के लिए स्पष्ट रूप से कहा गया है. 

भारत के संविधान के अनुच्छेद 48 में राज्यों को गायों और बछड़ों और अन्य दुश्मनों और मसौदे के मवेशियों की हत्या को प्रतिबंधित करने का आदेश दिया गया है. 26 अक्टूबर 2005 को, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक निर्णय में भारत में विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा अधिनियमित विरोधी गाय हत्या कानूनों की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा। भारत में 29 राज्यों में से 20 में वर्तमान में हत्या या बिक्री को प्रतिबंधित करने वाले विभिन्न नियम हैं. 

भारत में मौजूदा मांस निर्यात नीति के अनुसार, गोमांस (गाय, बैल का मांस और बछड़ा) का निर्यात प्रतिबंधित है. मांस, शव, बफेलो के आधे शव में भी हड्डी निषिद्ध है और इसे निर्यात करने की अनुमति नहीं है. 

26 मई 2017 को केंद्र सरकार के पर्यावरण मंत्रालय ने पूरे विश्व में पशु बाजारों में वध के लिए मवेशियों की बिक्री और खरीद पर प्रतिबंध लगाया, जिसमें पशु विधियों की क्रूरता की रोकथाम के तहत हालांकि जुलाई 2017 में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में मवेशियों की बिक्री पर प्रतिबंध को निलंबित कर दिया. 

अहिंसा के नैतिक सिद्धांत के अनुसार विभिन्न भारतीय धर्मों भी गोहत्या का विरोध करते हैं. 

गाय जीव और जीवन दोनों के लिए आवश्यक है. गाय आजीविका का एक अभिन्न हिस्सा है. गोवंश के उत्पाद  हमारी आर्थिक आवश्यकता भी पूरा करते हैं. 

कब हुर्इ भारत में गौहत्या की शुरूआत

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भारत में पहली बार 1000 र्इ. के आसपास जब विभिन्न इस्लामी आक्रमणकारियों तुर्की, र्इरान (फारस), अरब और अफगानिस्तान से आये तो वे अपनी इस्लामी परंपराओं के अनुसार विशेष अवसरों पर ऊंट और बकरी, भेड़ बलिदान करते थे। हालांकि, मध्य और पश्‍चिम एशिया के इस्लामी शासक, गोमांस खाने के आदी नहीं थे, उन्होंने भारत में आने के पश्‍चात्‌ गाय के वध को और गायों की कुरबानी, विशेष रूप से बकरी – र्इद के अवसर पर शुरू कर दिया। उन्होंने भारत के मूल निवासियों को अपमानित करने और उनके भोजन प्रयोजनों में संप्रभुता और श्रेष्ठता साबित करने के लिए किया था। इनके इस कार्य अर्थात गौवध के कारण इस देश के मूल हिंदू आबादी में असंतोष पनपने लगा। कहा जाता है हिंदुओं के विरोध को संज्ञान लेते हुए अकबर और औरंगजेब जैसे मुगल शासकों ने मुस्लिम त्यौहारों के दौरान गायों की हत्या और गायों की कुरबानी को निषिद्ध घोषित किया था।

भारत में गौकशी

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गोकशी आज देश और समाज के लिए सबसे बड़ा मुद्दा है. गाय पूज्यनीय है. गाय को माता का दर्ज़ा दिया गया है. फिर भी गाय सुरक्षित नहीं है. अनुपयोगी होने पर गाय को मरने के लिए छोड़ दिया जाता है. बिनदुधारू या कम दूध देने वाली, बूढ़ी, अपाहिज, बीमार गोवंश को कसाई के हाथों बेच दिया जाता है. 

हालांकि, देश के अलग अलग राज्यों में गोकशी को रोकने के लिए गौ-संरक्षण कानून बनाये गए हैं. लेकिन इन कानूनों को सही ढंग से लागू नहीं कराया जा रहा है. यही वजह है कि कानून के होते हुए भी गो-हत्याओं को बढ़ावा मिल रहा है. 

गोकशी को रोकने के लिए देश में आज़ादी से पहले और बाद में अनेक आन्दोलन होते रहे हैं, लेकिन गोकशी रोकने के लिए अभी तक कोई प्रभावी क़ानून नहीं बन सका है. जिन राज्यों में गोकशी निषेध क़ानून बने भी हैं, वो सिर्फ़ औपचारिकता मात्र हैं. ऐसे में गोकशी को रोकने के लिए जनजागरण की ज़रुरत है. जिससे गोवंश का संरक्षण और संवर्धन हो सके.