Home Blog Page 6

गोबर से बना स्टीकर: रेडिएशन दूर करने में सहायक

0

मोबाइल रेडिएशन दूर करने के लिए गाय के गोबर से स्वास्तिक, भगवान शिव, गणेश, गौमाता एवं कई प्रकार की आकृति के मोबाइल स्टीकर बनाए जा रहे हैं। यह स्टीकर मोबाइल के पीछे लगाए जाते हैं। दावा है कि गोबर के स्टीकर मोबाइल से निकलने वाली हानिकारण विकिरणों से मोबाइल धारक की रक्षा करने में सहायक होती हैं।

देशभर में क़रीब 500 से ज़्यादा गौशालाओं में यह स्टीकर बनाये जा रहे हैं.

आयुर्वेदिक में भी कहा गया है कि गाय के गोबर में ऐसे गुण हैं जो रेडिएशन से सुरक्षा प्रदान करते हैं.

हालांकि इस दावे का अभी तक ना तो कोई परीक्षण हुआ है और ना ही कोई वैज्ञानिक जांच ही हुई है.

गोबर से कागज़

0

मध्यम और लघु उद्योग मंत्रालय की की पहल पर एक खास तकनीक द्वारा गोबर से कागज़ बनाया जा रहा है. सरकार की योजना है कि गोबर से कागज़ बनाने का प्लांट देश के हर हिस्से में लगाया जाएगा. नेशनल हैंडमेड पेपर इंस्टीट्यूट में गाय के गोबर से कागज़ बनाने की प्रक्रिया का सफल परीक्षण किया गया. इस योजना से जुड़ने वाले गोबर से पेपर बनाए जाने वाले प्लांट के लिए सब्सिडी और लोन भी प्राप्त कर सकते हैं.  इस प्लांट को तैयार करने में 5 लाख से लेकर 25 लाख रुपए तक का खर्च आ जाता है. एक प्लांट में 10 से 12 लोगों को रोज़गार दिया जा सकता है और इससे अच्छी आमदनी प्राप्त की जा सकती है.

एक गाय के पेट से 20 किलो तक निकल रहा प्लास्टिक

0

पोस्टमार्टम रिपोर्ट खंगालने और उस पर अध्ययन करने पर पाया गया कि औसतन एक गाय के पेट से 20 किलो तक प्लास्टिक निकला है। जुलार्इ 2017 के बाद से अब तक लगभग छह सौ गायों के पोस्टमार्टम रिपोर्ट का अध्ययन करने पर यह बात सामने आयी है। पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टरों का कहना है इनमें से 90 प्रतिशत गायों की मौत का कारण उनके पेट में जमा प्लास्टिक है। गायों का पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टरों का कहना है कि सड़कों पर घूमने वाली गाय सब्जी व अन्य खाने वाले सामानों के साथ उस प्लास्टिक को भी निगल जाती हैं, जिसमें वह खाद्य पदार्थ फेंका जाता है। प्लास्टिक गाय के पेट में जाकर जमा हो जाता है और फिर वह धीरे-धीरे आंतों को जाम कर देता है। एक समय ऐसा आता है जब आंतों में फंसी प्लास्टिक गाय की मौत का कारण बन जाता है। पोस्टमार्टम के दौरान जानवर की आंत को देखना होता है और उससे मौत का कारण पता लगाया जाता है। हर गाय की मौत का कारण प्लास्टिक सामने आ रहा है और पेट से 15 से 20 किलो तक प्लास्टिक निकलता है। इसमें पालीथीन, प्लास्टिक के बोरे, प्लास्टिक की रस्सियों के साथ अन्य खतरनाक कूड़े होते हैं, जो पेट में गलते नहीं हैं। पोस्टमार्टम के दौरान आसपास मौजूद डॉक्टर व पशु स्वास्थ्य कर्मियों को चक्कर आ जाता है। पेट में प्लास्टिक इस तरह फंसा होता है कि उसे निकालने में डॉक्टरों को पसीना छूट जाता है। 

एक गाय आधारित आर्थिक मॉडल

0

गो सेवा से जुड़ीं संस्थाओं में हिंगोनिया मवेशी पुनर्वास केंद्र की अपनी अलग विशेषता है. केंद्र का मानना है कि यदि आप ‘एक गाय’ की जान बचा सकते हैं.’ तो ‘गो संरक्षण-संवर्धन’ की कोई समस्या ही नहीं रह जाएगी. 

हिंगोनिया मवेशी पुनर्वास केंद्र ‘गाय और पर्यावरण’ की रक्षा के उद्देश्य से ‘एक गाय आधारित आर्थिक मॉडल’ विकसित कर रहा है. पूरी दुनिया इस मॉडल का अध्ययन कर सकती है और देख सकती है कि गाय और पर्यावरण की सुरक्षा कैसे जुड़ी हुई है. ऐसा करने से एक साथ ‘गाय और पर्यावरण’ की रक्षा की जा सकती है. ‘एक गाय आधारित आर्थिक मॉडल’ किसानों को गाय पालन करने के लिए प्रेरित कर रहा है.

बांग्लादेशी तस्करों के जाल में फँसी गौमाता सालाना 40 हज़ार करोड़ की गौतस्करी

0

बांग्लादेश तीन तरफ से भारत से घिरा हुआ है। दोनों देशों के बीच 4,156 किलोमीटर लंबी सीमा है, जो दुनिया का पांचवां सबसे लंबा बॉर्डर एरिया है। पश्‍चिम बंगाल और असम के कर्इ इलाके जमीन और जलमार्ग से बांग्लादेश से जुड़े हुए हैं। गायों की तस्करी के लिए जल और जमीन दोनों ही रास्तों का इस्तेमाल हो रहा है। पश्‍चिम बंगाल में 2,216 किलोमीटर लंबी भारत-बांग्लादेश सीमा के जरिए हर साल बड़ी संख्या में मवेशियों की बांग्लादेश में तस्करी होने का अनुमान है। सीमावर्ती क्षेत्र मालदा-मुर्शिदाबाद के कच्चे रास्ते से रोजाना गायें बांग्लादेश पहुंचती हैं। 

सीबीआर्इ का मानना है कि जिस संख्या में गायों की तस्करी होती है उसमें से केवल पांच फीसदी ही बीएसएफ के जवान रोक पाते हैं। बाकियों की या तो जानकारी कम है या फिर मिलीभगत है। अब सीबीआर्इ इसके पीछे काम करने वाले सिंडिकेट के बीच सांठगांठ का खुलासा करने की कोशिश में है। 

एक समाचार के मुताबिक संदेह के आधार पर सीबीआर्इ ने कर्इ बड़े नाम वालों को गायों की तस्करी में लिप्त होने का अनुमान लगाया है। इनमें से एक नाम तो तृणमूल कांग्रेस के एक नेता का भी है। कहा जाता है कि पशु तस्करी करके इस नेता ने काफी धन बनाया है इसकी जांच भी अब एजेंसी कर रही हैं। 

बांग्लादेश में गायों की कीमत नस्ल और ऊंचार्इ के आधार पर तय होती है। जैसे हरियाणा और यूपी की नस्लें ज्यादा कीमत पर बिकती हैं, जबकि बंगाल की गायों की कीमत अपेक्षाकृत कम है। र्इद के दौरान इनकी मांग बढ़ने से कीमत भी ज्यादा हो जाती है। जब कभी किसी गिरोह द्वारा तस्करी की जा रही गायों को बीएसएफ जब्त करती है और बाद में उनकी नीलामी होती है तो इनकी कीमत जानबूझकर कम लगार्इ जाती है। यह कीमत भी तस्करी में शामिल लोगों द्वारा ही तय की जाती है। साथ ही केवल कुछ ही व्यापारियों को कम कीमत पर इन्हें खरीदने की इजाजत मिलती है। नीलामी के बाद गायों को दोबारा बढ़ी हुर्इ कीमत पर व्यापारी बांग्लादेशी तस्करों को बेच देते हैं। गायों या दूसरे मवेशियों की तस्करी के लिए तस्कर आए दिन नए तरीके अपनाते हैं। लंबा-चौड़ा बॉर्डर होने के कारण उसके चारों ओर बाड़ नहीं लगायी जा सकती और न ही सीमा पर उतनी पक्की चौकसी हो पाती है। इसी बात का फायदा तस्कर उठाते हैं। कर्इ बार गायों को सीमा पार ले जाने के लिए महिलाओं या बच्चों का इस्तेमाल भी होता है क्यों कि उन पर आसानी से शक नहीं किया जाता। लीवर के इस्तेमाल से भी मवेशी सीमा पार भेजे जाते हैं, जिसे झूला तकनीक कहते हैं। ये तकनीक छोटे मवेशियों के लिए इस्तेमाल होती है। साल 2016 में सीबीआर्इ ने इस तस्करी का अनुमानित फायदा लगभग 15 हजार करोड़ रुपए से भी ज्यादा माना था। इसके अलावा असम से भी तस्करी होती है। आंकड़ों के लिहाज से भी ये मुद्दा गंभीर दिखता है। साल 2014 में तस्करी करके ले जाए जा रहे करीब एक लाख दस हजार पशुओं को बीएसएफ ने जब्त किया था। साल 2016 तक आते – आते सीमा पर जब्त पशुओं की संख्या एक लाख 69 हजार तक पहुंच गर्इ। जब्ती की इस संख्या से इस बात का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है कि सही मायने में कितने पशुओं की तस्करी हुर्इ। एक बात ये भी है कि बांग्लादेश में पशु तस्करी को अपराध नहीं माना जाता, बल्कि ये वहां की सरकार के लिए राजस्व का जरिया है। भारत का तस्कर बांग्लादेश की सीमा में जाते ही पशुओं के बदले टैक्स चुकाता है और बाकायदा व्यापारी कहलाता है। बांग्लादेश में पशुओं को खरीदकर ज्यादा कीमत पर दूसरे बीफ खाने वाले देशों को भी बेचा जाता है। ये भी वहां आय का एक जरिया है। साथ ही पशुओं से जुड़े चमड़ा उद्योग भी वहां खूब चलते हैं। तो कुल मिलाकर हमारे यहां के मवेशी पड़ोसी देश की जीडीपी में योगदान दे रहे है। 

भारत से गायों की तस्करी को लेकर सीबीआर्इ ने चौंकाने वाला खुलासा किया है कि देश के गायों की खेप की खेप बांग्लादेश सीमा के जरिए बाहर पहुंचायी जा रही हैं। यहां तक कि इस तस्करी में बीएसएफ और कस्टम वालों के अलावा कर्इ सफेद पोश लोगों की मिलीभगत बतायी जा रही है। 

एक प्रमुख समाचार पत्र में छपी रिपोर्ट के अनुसार भारत-बांग्लादेश सीमा पर गौतस्करी का धंधा सालाना 35-40 हजार करोड़ रुपये का है। भारत में जिस गाय की कीमत 20 हजार होती है बॉर्डर पार करवाते ही बांग्लादेश में वह औसतन 50 हजार में बिकती है ।

देश के तीन राज्यों में 55 फीसदी बूचड़खाने

0

देश के तीन राज्यों – तमिलनाडु, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में सबसे अधिक बूचड़खाने हैं. पीपुल फॉर द एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स (PETA) इंडिया के आंकलन पर गौर करें तो देश में अवैध बूचड़खानों की संख्या अभी भी 30,000 से ज्यादा होने का अनुमान है। जबकि सूचना का अधिकार (आरटीआर्इ) के जरिये पता चला है कि देश में मात्र 1,707 बूचड़खाने ही पंजीकृत हैं

सबसे अधिक पंजीकृत बूचड़खाने वाले सूबों की फेहरिस्त में क्रमशः तमिलनाडु, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र शीर्ष तीन स्थानों पर हैं, जबकि अरुणाचल प्रदेश और चंडीगढ समेत आठ राज्यों में एक भी बूचड़खाना पंजीकृत नहीं है। मध्यप्रदेश के नीमच निवासी आरटीआर्इ कार्यकर्ता चंद्रशेखर गौड़ को भारतीय खाद्य संरक्षा एंव मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआर्इ) ने ये आंकड़े फूड लायसेंसिंग एंड रजिस्ट्रेशन सिस्टम के जरिये उपलब्ध जानकारी के आधार पर प्रदान किए हैं। आरटीआर्इ के तहत मुहैया कराये गये इन आंकड़ों की रोशनी में सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश में कितनी बड़ी तादाद में अवैध बूचड़खाने चल रहे हैं।

आरटीआर्इ अर्जी पर भेजे जवाब में एफएसएसएआर्इ के एक अफसर ने बताया कि अरुणाचल प्रदेश, चंडीगढ़, दादरा व नगर हवेली, दमन व दीव, मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम और त्रिपुरा में एक भी बूचड़खाना खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम 2006 के तहत पंजीकृत नहीं है। आरटीआर्इ से मिली जानकारी यह चौंकाने वाला खुलासा भी करती है कि आठों राज्यों में ऐसा एक भी बूचड़खाना नहीं है जिसने केंद्रीय या राज्यस्तरीय लायसेंस ले रखा हो। एफएसएसएआर्इ ने आरटीआर्इ के तहत बताया कि तमिलनाडु में 425, मध्यप्रदेश में 262, और महाराष्ट्र में 249 बूचड़खाने खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम 2006 के तहत पंजीकृत हैं। यानी देश के कुल 55 फीसदी बूचड़खाने इन्हीं तीन सूबों में चल रहे हैं। 

उत्तर प्रदेश में अवैध पशुवधशालाओं के खिलाफ सरकार की कार्रवार्इ चर्चा में है जबकि प्रदेश में महज 58 बूचड़खाने ही पंजीकृत हैं। आंध्रप्रदेश में 1, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में 9, असम में 51, बिहार में 5, छत्तीसगढ में 111, दिल्ली में 14, गोवा में 4, गुजरात में 4, हरियाणा में 18, हिमाचल प्रदेश में 82, जम्मू कश्मीर में 23, झारखंड में 11, कर्नाटक में 30, केरल में 50, लक्षदीप में 65, मणिपुर में 4, और मेघालय में एक बूचड़खाने को खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम 2006 के तहत पंजीकृत किया गया है।

ओडिसा में 5, पुडुचेरी में 2, पंजाब में 112, राजस्थान में 84, और उत्तराखंडृ में 22 और पश्चिम बंगाल में 5 बूचड़खाने खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम 2006 के तहत पंजीकृत हैं। एफएसएसएआर्इ ने आरटीआर्इ के तहत यह भी बताया कि देशभर में 162 बूचड़खानों को प्रदेश स्तरीय लायसेंस मिले हैं, जबकि 117 पशुवधशालाओं को केंद्रीय लायसेंस हासिल है। इस बीच पशुहितैषी संगठन पीपुल फॉर द एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स (पेटा) इंडिया की विज्ञप्ति में मोटे आंकलन के हवाले से कहा गया है कि देश में अवैध या गैरलाइसेंसी बूचड़खानों की संख्या 30,000 से ज्यादा है।

हालांकि, कर्इ लायसेंसशुदा बूचड़खानों में भी पशुओं को बेहद क्रूरतापूर्वक जान से मारा जाता है। पेटा इंडिया ने सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों से अनुरोध किया है कि वे ऐसी पशुवधशालाओं को बंद कराएं जिनके पास उपयुक्त प्राधिकारणों के लायसेंस नहीं है और जो कानून द्वारा निषिद्ध तरीकों का इस्तेमाल करते हैं।

गाय के पेट से प्लास्टिक निकालने का सरल उपचार

0

हिन्दू धर्म में मां के रूप में पूजी जाने वाली गौमाता के जीवन पर प्लाास्टिक की थैलियाँ भारी पड़ रही हैं। पेट में पॉलिथीन होने से गाय को अफरा आता है जिस कारण वह श्‍वास ले पाने में असमर्थ होती है। गाय के पेट में जमा पॉलिथीन निकालने के लिए पशु चिकित्सकों को गाय के पेट का ऑपरेशन करना पड़ता है। पेट चीरकर पॉलिथीन निकालने की प्रक्रिया काफी कष्टदायी होती है और इसमें गाय के बचने की सम्भावना भी कम ही होती है। परन्तु अब एक बेहद सामान्य से उपचार के माध्यम से गाय के पेट से बड़ी मात्रा में पॉलिथीन आसानी से निकाली जा सकती है, वह भी गाय को बिना कोर्इ कष्ट दिए। 

जयपुर के पशुपालन अधिकारी डॉ. कैलाश मोड़े ने गाय के पेट से पॉलिथीन निकालने की एक बेहद सामान्य उपचार प्रक्रिया र्इजाद की है। वे स्वयं इस उपचार प्रक्रिया के माध्यम से लगभग 250 गायों का जीवन बचा चुके हैं। इस उपचार प्रक्रिया के माध्यम से एक गाय के पेट से 5 से 15 किलो तक पॉलिथीन वे स्वयं निकाल चुके हैं। आप चाहें तो डॉ. साहब से फोन पर संपर्क कर सकते हैं। 

डॉ. कैलाश मोड़े, पशुपालन अधिकारी, जयपुर नगर निगम मो.09414041752

ऐसे करें उपचार सामग्री: 

100 ग्राम सरसों का तेल,100 ग्राम तिल का तेल, 100 ग्राम नीम का तेल और 100 ग्राम अरण्डी का तेल 

विधि: इन सबको खूब मिलाकर 500 ग्राम गाय के दूध की बनी छाछ में डालें तथा 50 ग्राम फिटकरी, 50 ग्राम सौंधा नमक पीस कर डालें। ऊपर से 25 ग्राम साबुत रार्इ डालें। यह घोल तीन दिन तक पिलायें और साथ में हरा चारा भी दें। ऐसा करने से गाय जुगाली करते समय मुँह से पॉलिथीन निकालती है। कुछ ही दिनों में पेट में जमा सारा प्लास्टिक का कचरा बाहर निकल जायेगा। यह उपचार सफल सिद्ध हो रहा है!

देसी गायों के अस्तित्व पर प्रश्‍न

0

भारत में गाय को पूजनीय मानकर माता कहा जाता है जबकि विश्‍व के दूसरे देशों में ऐसा नहीं है। भारतीय गाय के दूध के अलावा गोमूत्र और गोबर को भी पवित्र माना जाता है। सुख, समृद्धि की प्रतीक रही भारतीय गाय आज गौशालाओं में भी उपेक्षित है।

अधिक दूध के लिए विदेशी गायों को पाला जा रहा है जबकि भारतीय नस्ल की गायें, जो आज भी सर्वाधिक दूध देती हैं, त्याज्य ही हैं। गौशाला में देशी गोवंश के संरक्षण, संवर्द्धन की परंपरा भी खत्म हो रही है। हमारी गौशालाएं ‘डेयरी फार्म’ बन चुकी हैं, जहां दूध का ही व्यवसाय हो रहा है और सरकार भी इसी को अनुदान देती है। हमें देसी गाय के महत्त्व और उसके साथ सहजीवन को समझना जरूरी है।

आज भारतीय गौशालाओं से भारतीय गोवंश सिमटता जा रहा है। गाय की उत्पत्ति स्थल भी भारत ही है। इसका सर्वप्रथम विकास लगभग 15 लाख वर्ष पूर्व एशिया में हुआ। इसके बाद गाय अफ्रीका और यूरोप में फैली। गायों का विकास दुनिया के पर्यावरण, वहां की आबोहवा के साथ उनके भौतिक स्वरूप व अन्य गुणों में परिवर्तित हुआ। विदेशी नस्ल की गाय को भारतीय संस्कृति की दृष्टि से गौमाता नहीं कहा जा सकता।

जर्सी, होलस्टीन, फ्रिजियन, आस्ट्रियन आदि नस्लें आधुनिक गोधन जिनेटिकली इंजीनियर्ड है। इन्हें मांस व दूध के अधिक उत्पादन के लिए सुअर के जींस से विकसित किया गया है। अधिक दूध की मांग के आगे नतमस्तक होते हुए भारतीय पशु वैज्ञानिकों ने बजाय भारतीय गायों के संवर्द्‌धन के विदेशी गायों व नस्लों को आयात कर एक आसान रास्ता अपना लिया। आज ब्राजील भारतीय नस्ल की गायों का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया है।

भारतीय नस्ल की गायें सर्वाधिक दूध देती थीं और आज भी देती हैं। ब्राजील में भारतीय गौवंश की नस्लें सर्वाधिक दूध दे रही हैं। खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) की रिपोर्ट में कहा गया है- ब्राजील भारतीय नस्ल की गायों का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया है। वहां भारतीय नस्ल की गायें होलस्टीन, फ्रिजीयन (एचएफ) और जर्सी गाय के बराबर दूध देती हैं। भारतीय नस्ल के गायों की शारीरिक संरचना अद्भुत है। इसलिए गोपालन के साथ वास्तु शास्त्र में भी गाय को विशेष महत्त्व दिया गया है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भारतीय नस्ल के गायों की रीढ़ में सूर्यकेतु नामक एक विशेष नाड़ी होती है।

जब इस पर सूर्य की किरणें पड़ती हैं, तब यह नाड़ी सूर्य किरणों के तालमेल से सूक्ष्म स्वर्ण कणों का निर्माण करती है। यही कारण है कि देशी नस्ल की गायों का दूध पीलापन लिए होता है। इस दूध में विशेष गुण होता है। ध्यान दें कि अनेक पालतू पशु दूध देते हैं, पर गाय के दूध को उसके विशेष गुण के कारण सर्वोपरि कहा गया है।गाय के दूध के अलावा उसके गोबर व मूत्र में अद्भुत गुण हैं। रासायनिक विश्‍लेषण से पता चलता है कि खेती के लिए जरूरी 23 प्रकार के प्रमुख तत्त्व गोमूत्र में पाए जाते हैं। इन तत्त्वों में कर्इ महत्त्वपूर्ण मिनरल, लवण, विटामिन, एसिड्स, प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट होते हैं।

गोबर में विटामिन बी-12 प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। यह रेडियोधर्मिता को भी सोख लेता है। हिंदुओं के हर धार्मिक कार्यों में गोबर से बने गणेश और गौरी (पार्वती) को पूजा स्थल में रखा जाता है। सर्वप्रथम गौरी-गणेश पूजन के बाद ही पूजा कार्य होता है। गाय के गोबर में खेती के लिए लाभकारी जीवाणु, बैक्टीरिया, फंगल आदि बड़ी संख्या में रहते हैं। गोबर खाद से अन्न उत्पादन व गुणवत्ता में वृद्धि होती है। इन्हीं सब गुणों के कारण भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति और परंपरा में गाय को पूजनीय माना जाता है। हम भारतीय गौवंश को अपनाकर उन्हें गोशाला में संरक्षित, संवर्धित कर सकते हैं, जिसका सर्वाधिक लाभ भी हमें ही मिलेगा।

इंसान की ग़लतियों से मर रहीं गौमाताएं

0

इंसान की ग़लतियों का खामियाज़ा हमारी गौमाताएं भुगत रहीं हैं। भारत के छोटे बड़े शहरों में इधर-उधर भटकती गायें और आवारा घूम रहे गौवंशों में से 95 प्रतिशत पशु अपने पेट के अंदर खतरनाक सामग्री के कारण विभिन्न बीमारियों से पीड़ित हैं, उनमें से 90 प्रतिशत प्लास्टिक बैग हैं जो मनुष्यों द्वारा खाद्य पदार्थ भरकर कचरे के ढेर पर फेंक दिया जाता है। गायों के पेट से भारी मात्रा में जहरीला कचरा निकल रहा है। इसमें न सिर्फ पॉलिथीन की थैलियां बल्कि प्लास्टिक की बोतलों के ढक्कन, लोहे की कीलें, सिक्के, ब्लेड, सेफ्टी पिन, पत्थर और मंदिरों में चढ़ावे से निकला कचरा भी शामिल है। डॉक्टरों के मुताबिक गायों के पेट में कचरे का जमाव बेहद सख्त होता है जिसे काटकर बाहर निकालने के लिए कर्इ बार आरी की मदद भी लेनी पड़ती है। शहर में घूम रही गायें हर दिन प्लास्टिक खा रही हैं। पेट में जब अधिक प्लास्टिक जमा हो जाता है तो वह दम तोड़ दे रही हैं। दो साल में हुए पोस्टमार्टम की रिपोर्ट को जानकर आप भी हैरान हो जाएंगे। छह सौ गायों की मौत के बाद पशु विभाग द्वारा कराए गए पोस्टमार्टम में एक हजार किलो प्लास्टिक निकला है। पशु स्वास्थ्य को लेकर यह गंभीर मामला है जिसे लेकर डॉक्टरों ने भी रिपोर्ट दी है।

प्रशासनिक लापरवाही के नतीजे अवैध बूचड़खाने

0

मांस व्यापार के लिए मवेशियों और बूचड़खाने को लेकर बहुत सारे नियम हैं। मवेशियों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाना कहां और कैसे काटा जाए, निर्यात किए जाने वाले मांस के प्रसंस्करण (प्रोसेसिंग) इन सबके लिए ढेरों कानून हैं। इन सभी कानूनों का पालन सरकार के हर स्तर-केंद्र, राज्य और स्थानीय स्तर पर होना है लेकिन ऐसा होता नहीं है। हालांकि कर्इ सारे दिशा-निर्देश एक दूसरे से मिलते-जुलते हैं, पशुओं से संबंधित मामलों के लिए दो नियम हैं। पहला, पशु क्रूरता निवारण (वधशाला) नियम 2001, जिसके क्रियान्वयन की जिम्मेदारी स्थानीय सरकारी तंत्र की है जैसे नगर निगम, नगर पालिका और पंचायत। दूसरा खाद्य सुरक्षा और उसके मानक (खाद्य व्यवसाय और पंजीकरण) अधिनियम, जिसके कार्यान्वयन की जिम्मेदारी भारतीय खाद्य सुरक्षा मानक प्राधिकरण या (एफएसएसएआर्इ) की है। पर्यावरण संबंधित मानकों के लिए पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम, 1986 है जिसके क्रियान्वयन की जिम्मेदारी राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की है।

बूचड़खाना को एफएसएसएआर्इ के नियम के अनुसार खाद्य व्यवसाय संचालक के तौर पर पारिभाषित किया गया है जिसके अंतर्गत एक खास क्षेत्र में बड़े और छोटे पशुओं को काटा जाता है। इनमें भेड़, बकरी और विभिन्न प्रकार के पक्षी भी शामिल हैं। इसके अनुसार इस जगह पर मांस का उत्पादन, विक्रय इत्यादि सब होता है। इस परिभाषा के अनुसार गली-मोहल्लों के मुर्गे की दुकान भी बूचड़खाना कहलाएगी। पशु क्रूरता निवारण (वधशाला) नियम के अनुसार ‘वह स्थान जहां 10 या अधिक जानवर रोज कटते हों’, को बूचड़खाने के तौर पर परिभाषित किया जा सकता है। जैसे ही जानवर खरीदे जाते हैं, पशु क्रूरता निवारण (वधशाला) नियम की भूमिका शुरू होती है। इस नियम में कर्इ तरह के जानवर के काटे जाने पर प्रतिबंध है जैसे अगर पशु गर्भ से है, तीन महीने से छोटे जानवर, जिसका तीन महीने से छोटा बछड़ा हो या पशुओं के डॉक्टर द्वारा काटे जाने के लिए पूर्ण रूप से फिट होने का सर्टिफिकेट न दिया गया हो।

जानवर के काटे जाने के इन नियमों के सुनिश्‍चित हो जाने के बाद बूचड़खाने से संबंधित नियम की भूमिका शुरू होती है। जैसे बूचड़खाने में आने वाले पशुओं के लिए रिसेप्शन क्षेत्र होना चाहिए। पशुओं के आराम करने के लिए जगह होनी चाहिए। इसके तहत एक बड़े जानवर को कम से कम 2.8 वर्ग मीटर और छोटे जानवर को 1.6 वर्ग मीटर की जगह दी जानी चाहिए। इसका स्पष्ट उल्लेख सेक्शन 5 (3) में है। इसके अतिरिक्त सेक्शन 5 (4) के अनुसार यह विश्रामगृह ऐसे बना होना चाहिए जहां जानवर गर्मी, सर्दी और बरसात में सुरक्षित रहें। इस कानून में बूचड़खाने में रोशनी से लेकर हवा के आने-जाने तक, सबके लिए प्रावधान है। ‘आंतरिक दीवार चिकनी और सपाट होनी चाहिए। ये दीवार मजबूत चीजों से बनी होनी चाहिए जैसे र्इंट, टार्इल्स, सीमेंट या प्लास्टर इत्यादि।’ इसमें आगे यहां तक कहा गया है ‘कोर्इ व्यक्ति जो संक्रामक या अन्य फैलने वाले रोग से ग्रसित है तो उसे जानवर काटने की इजाजत नहीं दी जा सकती है।’ अगर इसको सामान्य भाषा में समझा जाए तो जिसको सर्दी हुर्इ होगी उसे नुक्कड़ की दुकानों में मुर्गा काटने की इजाजत नहीं होगी। 

जब पंचायत, जिला परिषद या नगर निगम पशु क्रूरता निवारण (वधशाला) नियम संबंधी अनापत्ति प्रमाणमत्र (एनओसी) जारी कर दे, तब एफएसएसएआर्इ की जिम्मेदारी शुरू होती है। इसके अनुसार बूचड़खाने तीन श्रेणी में बंटे हैं। पहला वह मांस उत्पादक जो दो बड़े और करीब 10 छोटे जानवर या 50 चिड़िया (मुर्गे इत्यादि) रोज काटता हो। दूसरा वह जो 50 बड़े जानवर और 150 छोटे जानवर या 1,000 चिड़िया रोज काटता हो और तीसरा वो जो इससे भी अधिक जानवर काटता हो। इस नियम के अनुसार छोटे उत्पादक को राज्य खाद्य सुरक्षा आयुक्त के तौर पर नियुक्त/अधिसूचित पंजीकरण प्राधिकारी-जो पंचायत या नगर निगम का अधिकारी हो सकता है- से पंजीकरण प्रमाणपत्र और फोटो पहचान पत्र लेना होता है।

दूसरी श्रेणी में आता है मांस उत्पादक, जिसे राज्य या केंद्र शासित राज्य के अधिकारी से लाइसेंस लेना पड़ता है। वह अधिकारी राज्य के खाद्य सुरक्षा आयुक्त द्वारा नियुक्त किया जाता है। तीसरी श्रेणी में आने वाले उत्पादक को केंद्र लाइसेंसिंग प्राधिकरण से लाइसेंस लेना होता है। इस प्राधिकरण की नियुक्ति एफएसएसएआर्इ के मुख्य कार्यकारी अधिकारी द्वारा किया जाता है। सबसे छोटे उत्पादक को एक महीने के भीतर लाइसेंस मिल जाना चाहिए और पंजीकरण करने वाले अधिकरी को एक साल में कम से कम एक बार बूचड़खाने का निरीक्षण करना चाहिए। एफएसएसएआर्इ के नियम के अनुसार पशुओं को काटने से पहले सुन्न करना होता है ताकि ‘पशुओं को किसी प्रकार के डर, तनाव या दर्द से मुक्त किया जा सके।’ 

इस नियम के साथ सबसे बड़ी समस्या निगरानी की है। जैसे कि बूचड़खाने अथवा व्यापार के लिए ही सही, जानवर ले जा रहे ट्रक की गति सीमा 40 किलोमीटर प्रति घंटे से अधिक नहीं होनी चाहिए, ताकि इन्हे झटके से बचाया जा सके। उस ट्रक में कुछ और नहीं लादा जाना चाहिए, साथ ही उस ट्रक को गैर जरूरी जगहों पर नहीं रुकना चाहिए। इस नियम में लोगों को तेज आवाज निकालने, जैसे सीटी बजाना इत्यादि से बचने को कहा गया है। जिससे की पशुओं को कोर्इ तनाव न हो। लेकिन वाहन चालकों द्वारा इन नियमों की पूरी तरह अनदेखी किया जाना आम है।

यह स्पष्ट है कि मांस उत्पादन संबंधी ढेरों कानून हैं। पशुओं को सलीके से एक जगह से दूसरी जगह ले जाने से लेकर, काटने में मानवीयता बरतने, साफ-सफार्इ और निकलने वाले कचरे के निपटारे तक। लेकिन समस्या इन नियमों के क्रियान्वयन में है। जिन संस्थाओं को इन बूचड़खानों की निगरानी करना है उनके पास या तो स्टाफ की भारी किल्लत है अथवा सही दिशा निर्देशों का अभाव। जिसके चलते ये नियम पूरी तरह से लागू नहीं हो पा रहे हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के एक बड़े अधिकारी का कहना है कि यहां हर स्तर पर गैरकानूनी काम हो रहा है। बीफ खाने वाले लोग सस्ता मांस खरीदना पसंद करते हैं जो सिर्फ अवैध बूचड़खानों से ही मिल सकता है। जगह-जगह चल रहे अवैध बूचड़खाने इन नियमों को लागू कराने वाले जिम्मेदारों की अकर्मण्यता और रिश्‍वतखोरी के नतीजे हैं।