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गीर गोवंश की शुद्धता के लिए कुछ प्रयोग किये – गोपाल सुतारिया

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हमारे गुरु जी कहते हैं कि गौ माता और किसान अगर दुखी रहेंगे तो देश कभी खुश नहीं रहेगा। इसी बात का अनुसरण करते हुए लगभग 15 साल पहले हम मुंबई छोड़कर यहां अहमदाबाद आ गए। यहां आकर हमने ‘बंसी गीर गौशाला’ की स्थापना की। हमारे पूर्वज गीर गौ माता रखते थे, इसीलिए हम लोगों ने भी गीर गौमाता रखने का फैसला किया और गीर गोवंश की शुद्धता के लिए कुछ प्रयोग शुरु किये।

‘बंसी गीर गौशाला’ में अभी तकरीबन 600 गौवंश हैं. 150 दूध देने वाली गौ माता हैं और उतने ही बच्चे हैं। 100 के करीब बछड़े है, जिन्हें हम लोग उसको नंदी ग्राम के लिए तैयार कर रहे हैं। हम गोवंश की अच्छी नस्ल का ध्यान रखते हैं, इसीलिए हमारे नंदी की बुकिंग एडवांस में होती है। गौशाला में गीर गोवंश के 18 गोत्र की गाय है। उसके बछड़े तैयार करके हम लोग गांव वालों को देते हैं।

‘बंसी गीर गौशाला’ में हम लोग गौ आधारित कृषि को भी बढ़ावा दे रहे हैं. इसके लिए  ज़रूरी है गाय को रखना।bansi gir cow

शुरुआत में हमें अच्छी गाय कम मिली थीं। अधिकतर ऐसी गायें थीं, जिसका पांच या सात ब्यात हो चुका था अथवा एक या दो आंचल खराब हो चुका था, या फिर नॉन – फ़र्टाइल होती थीं। ज़्यादा पैसे चुकाकर हम वैसी गाय लेकर आये और उसकी अच्छी परवरिश की। उसको ऑर्गेनिक फूड दिया, आयुर्वेदिक ट्रीटमेंट  दिया, जिससे वो फिर से अच्छा परफॉम करने लगीं। और, जैसा हमने सोचा था हक़ीक़त में अपनी आँखों से देखा। आज हमें इसका  परिणाम मिल रहा है। 15 ब्यात के बाद भी गौ माता परफॉम करती है। तो ऐसे ही गौमाताओं को और उनके वंश को कैसे बढ़ाया जाये, इसके लिए हम नए-नए प्रयोग करते हुए कार्य कर रहे हैं।

गौ आधारित जैविक खेती से दोहरा लाभ ले रहे किसान

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कुछ समय पहले तक गाँव के युवा खेती से मुंह मोड़कर रोजगार की तलाश में शहरों का रुख कर रहे थे, लेकिन अब परिस्थितियों में बदलाव देखने को मिल रहा है। परंपरागत कृषि विकास के क्षेत्र में रूचि लेते हुए अब गाँव के युवा किसान आजीविका के लिए शहरों का मोह त्यागकर अब गाँव में ही जैविक खेती कर दोहरा लाभ ले रहे हैं। 

महाराष्ट्र के गोंदिया जिले के दर्जनों गांवों के किसान गौ आधारित जैविक खेती कर कर रहे हैं। गौ आधारित जैविक खेती के लिए आवश्यक उर्वरक और अन्य कीटनाशक गोबर और गोमूत्र से घर पर ही निर्मित कर लेते हैं। अतः खेती में इनकी लागत लगभग शून्य हो जाती है और अंतराष्ट्रीय बाजार की स्पर्धा में जैविक उत्पाद अधिक खरे उतरते हैं। जिसके फलस्वरूप सामान्य उत्पादन की अपेक्षा में कृषक भाई अधिक लाभ प्राप्त कर रहे हैं। साथ ही देसी गायों से मिलने वाले गोबर और गोमूत्र से जैविक उत्पाद बनाकर अन्य किसानों को उचित मूल्य पर बेचते हैं इससे इन्हें दोहरा लाभ प्राप्त होता है। 

महाराष्ट्र के गोंदिया जिला के तिरोड़ा स्थित अडानी फाउंडेशन के सहयोग से देवलापार अनुसन्धान केंद्र में गौ आधारित जैविक कृषि का प्रशिक्षण प्राप्त कर चुके इन किसानों में से एक हीरानंद पटले ने हमें बताया कि उन्होंने आज से चार पांच वर्ष पहले ही जैविक खाद बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त किया था। साथ ही उन्होंने गौमूत्र से अन्य औषधीय उत्पाद जैसे कि जीवामृत,अमृतपानी आदि बनाने का प्रशिक्षण लिया था। जैविक खाद स्वयं बनाते हैं जिसका उपयोग हमारे खेतों में होता है। इससे अच्छी उपज के साथ गुणवत्तापूर्ण अनाज और सब्जियाँ प्राप्त होती हैं।

इससे पूर्व एक और किसान मधुकर हजारे ने अपने लहलहाते धान के खेत को दिखाते हुए बताया कि उन्होंने अपने खेत में जैविक खाद और पञ्चगव्य आधारित उर्वरक का उपयोग कर धान की रोपाई की है।

जिले के सुकड़ी तालुका के बालापुर नामक गाँव के एक अन्य किसान दंपत्ति श्रीमती स्वाति संजय बिसेन जैविक खेती के साथ साथ गौपालन भी कर रहे हैं। श्रीमती स्वाति बिसेन अपने पति संजय बिसेन के साथ कंधे से कंधा  मिलाकर गौ पालन के साथ-साथ पंचगव्य आधारित जैविक खेती कर रही हैं। संजय बिसेन ने बताया कि वे कीटों से फसल की सुरक्षा के लिए गौमूत्र और अन्य जड़ी के साथ मिलाकर घर पर ही बनाये गए आग्नेयास्त्र नामक कीटनाशक का प्रयोग करते हैं। उन्होंने कहा कि धान की अच्छी पैदावार के लिए खेतों में जीवामृत का छिड़काव करते हैं। संजय ने बताया कि उन्होंने गाँव के अन्य किसानों को भी प्रोत्साहित किया है और वे उनकी खेती देखकर पञ्चगव्य आधारित जैविक खेती की ओर उन्मुख भी हो रहे हैं। वहीं श्रीमती स्वाति संजय बिसेन ने हमें बताया कि खेती के लिए आवश्यक गौवंश देवलापार से नि:शुल्क प्राप्त हुए हैं  जिनसे हमें दूध के साथ-साथ गोबर भी उपयुक्त मात्रा में प्राप्त होता है। गोबर से घर पर केचुआ खाद का निर्माण करते हैं, जिसका उपयोग हम अपने खेतों में करते हैं। श्रीमती बिसेन ने बताया कि पंचगव्य आधारित जैविक खेती से हमें प्रति एकड़ 20 कुंतल तक धान की उपज प्राप्त हो जाती है।

बता दें कि अडानी फॉउंडेशन के सहयोग से प्रशिक्षण प्राप्त कर जैविक खेती करने वाले सभी किसानों को गायें और गौवत्स निःशुल्क प्रदान किये जाते हैं।

दावा – चिकित्सा के क्षेत्र में गौमूत्र एक क्रन्तिकारी औषधि साबित हो सकती है

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फ़्रांस के मशहूर चित्रकार बर्नार्ड पिकार्ट ने भारत में गौमूत्र चिकित्सा को दर्शाता एक चित्र बनाया था जिसमें बीमार एवं मरणासन्न व्यक्ति को गाय की पीठ पर औंधे मुँह इस प्रकार लिटाया गया था कि गाय का मूत्र सीधे रोगी के मुख में प्रवेश कर सके। 18वीं शताब्दी के शुरू के वर्षों में बनाया गया यह चित्र भारत में गौ मूत्र के महत्त्व को दर्शाता है।

गौमूत्र पंचगव्यों में से एक है। वर्तमान में गौमूत्र को गाय के मुख्य उपादान घी और दूध के पश्चात सर्वाधिक लाभकारी होने का दावा किया जा रहा है। कहीं-कहीं तो गौमूत्र को घी और दूध से भी अधिक महत्त्व दिया जा रहा है। हालाँकि आधुनिक चिकित्सा विज्ञानियों का मानना है कि ये दावे अस्पष्ट, अतिरंजित और अप्रामाण्य हैं, फिर भी उन्हें यह तो स्वीकार करना ही होगा कि हजारों वर्ष पूर्व लिखित आयुर्वेद में गौमूत्र को अमृत समान कहा गया है। इसीलिए आज के समय में गौमूत्र को जैविक औषधीय विकल्प के रूप में देखा जा रहा है।

गोमूत्र पर शोध करने वालों की मानें तो गौमूत्र में कुछ आयुर्वेदिक जड़ी बूटियों को मिलाकर बनायी गयी दवा से कैंसर जैसे शत-प्रतिशत जानलेवा बीमारी को ठीक किया जा सकता है। उत्तराखंड के पवलगढ़ स्थित गौमूत्र क्रांति अभियान के संचालक और वैद्य प्रदीप भंडारी ने ब्लड कैंसर से पीड़ित कई मरीजों को गौमूत्र चिकित्सा से ठीक करने का दावा किया है। इनमे से कई मरीजों ने तो अपनी बीमारी के ठीक होने का वीडियो भी जारी किया है, जिसमें वे अपनी बीमारी के गौमूत्र से इलाज के पश्चात पूरी तरह ठीक होने का दावा करते नजर आ रहे हैं। 

इसी प्रकार महाराष्ट्र के भंडारा जनपद स्थित एक फार्मेसी कालेज के प्रोफेसर डॉ. संजय वाते ने गौमूत्र से प्रभावित होकर अभी हाल ही में गौमूत्र पर पीएचडी की है। डॉ. संजय वाते ने गौमूत्र की विशेषता का दावा यूँ ही नहीं किया। उनका कहना था कि वे स्वयं एक ऐसे जटिल त्वचा रोग से ग्रस्त थे जिसका उपचार एलोपैथी पद्धति से करने पर कुछ दिनों के लिए रोग की आक्रामकता में कुछ कमी तो आती थी लेकिन इलाज चलते रहने के बावजूद पुनः कुछ दिनों बाद रोग फिर तेजी से उभर आता था। कई वर्षों की असफल चिकित्सा के बाद वे नागपुर के देवलापार स्थित गौ-विज्ञान अनुसन्धान केंद्र से गोमूत्र चिकित्सा शुरू की तो उसके आशातीत परिणाम देखकर वे गौमूत्र के चमत्कारिक प्रभाव से बहुत प्रभावित हुए तत्पश्चात उन्होंने कॉलेज के लेबोरेट्री में गौमूत्र पर गहन परीक्षण शुरू किया और फिर पीएचडी की डिग्री भी हासिल की। आज वे अपने रोग से पूरी तरह मुक्त होकर गौमूत्र चिकित्सा को बढ़ावा देने में देवलापार अनुसन्धान केंद्र का सहयोग कर रहे हैं।

गौमूत्र पर अनुसन्धान करने वालों का यह दावा है कि प्यूरीफाई गौमूत्र एक महौषधि है। इसके सेवन से त्वचा, हृदय, किडनी और पेट सम्बन्धी बिमारियों के साथ-साथ महिलाओं के रोग भी दूर हो जाते हैं। गौ-विज्ञान अनुसन्धान केंद्र देवलापार ने गौमूत्र पर कई भारतीय, अमरीकी और चीनी पेटेंट भी हासिल किया है। हालाँकि कुछ वैज्ञानिक भले ही गौमूत्र की विशेषता को छद्म विज्ञान मानते हुए इसे भारतीय नवाचार की संज्ञा देते हैं फिर भी गौमूत्र से होने वाले प्रत्यक्ष लाभों को यूँ ही अनदेखा नहीं किया जा सकता। गौमूत्र पर अनुसन्धान करने वालों ने प्रयोगशालीय परीक्षणों से यह साबित होने का दावा किया है कि गौमूत्र एंटीबायोटिक्स, एंटीफंगल एजेंट और कैंसर विरोधी दवाओं को अत्यधिक प्रभावी बना देता है।

बहरहाल जो भी हो, गौमूत्र पर अभी और अधिक शोध की आवश्यकता है। भारत सरकार यदि इस दिशा में कोई ठोस कार्य-योजना तैयार करे अथवा बढ़ावा दे तो आनेवाले समय में चिकित्सा के क्षेत्र में गौमूत्र एक क्रांतिकारी औषधि साबित हो सकती है।

…पी कुमार ‘संभव’

गौमूत्र क्रांति संस्थान में गौमूत्र चिकित्सा से ठीक हो रहे कैंसर के मरीज

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उत्तराखंड के पवलगढ़ स्थित गौमूत्र क्रांति संस्थान में गौमूत्र चिकित्सा से जानलेवा बीमारी कैंसर से पूरी तरह ठीक होकर लौटने पर गौमूत्र चिकित्सा से प्रभावित होकर जेजेटी यूनिवर्सिटी (राजस्थानी सेवा संघ) मुंबई और मरीज की परिजन राष्ट्रीय कवियित्री श्रीमती सुमिता केशवा द्वारा संस्थान के संचालक वैद्य प्रदीप भंडारी को प्रशस्ति-पत्र देकर सम्मानित किया गया।

पवलगढ़: (उ.खं.) भारत में गौमूत्र चिकित्सा के क्षेत्र में वैद्य प्रदीप भंडारी ने कैंसर जैसे असाध्य और लाईलाज बिमारियों से ग्रस्त मरीजों के मन में उम्मीद की एक नयी किरण जगाई है। अभी हाल ही में मुंबई निवासी राष्ट्रीय कवियित्री श्रीमती सुमिता केशवा के एक परिजन जानलेवा कैंसर से पूरी तरह ठीक होकर लौटे हैं। गौमूत्र  चिकित्सा के आश्चर्यजनक परिणाम देखकर और वैद्यजी के प्रशंसनीय तथा अद्भुत कार्यों से प्रभावित होकर कवियित्री श्रीमती सुमिता केशवा और जेजेटी यूनिवर्सिटी (राजस्थानी सेवा संघ) मुंबई ने वैद्यजी को प्रशस्ति-पत्र देकर सम्मानित करते हुए उनका आभार जताया। वैद्य प्रदीप भंडारी ने गौमूत्र और अन्य आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों के मिश्रण से लाईलाज बिमारियों से ग्रस्त कई मरीजों का सफल इलाज करने में सफलता प्राप्त की है।

आयुर्वेद में गौमूत्र को संजीवनी की संज्ञा दी गयी है। वैद्य प्रदीप भंडारी गौमूत्र पर लगभग पिछले 20 वर्षों से अपने शोध संस्थान ‘गौमूत्र क्रांति संस्थान’ में गहन शोध कर इसका सफल परिक्षण किया और आज कैंसर, हेपेटाइटिस, डायबिटीस, ब्लडप्रेशर, किडनी रोग जैसे तमाम असाध्य और शत-प्रतिशत जानलेवा बिमारियों का सफल इलाज कर रहे हैं। वैद्य प्रदीप भंडारी की गौमूत्र से कैंसर जैसे घातक बिमारियों से मरीज को ठीक कर देने की गूँज देश के महानगरों तक पहुँच चुकी है। कैंसर से ग्रसित प्रख्यात कवियित्री श्रीमती सुमिता केशवा के मुंबई निवासी एक परिजन ने चारों ओर से निराश होकर संस्थान में अपना इलाज कराना शुरू किया और कुछ ही दिनों में उनको लाभ होना शुरू हुआ और फिर अंततः पूरी तरह स्वस्थ होकर वे मुंबई वापस लौटे।

वैद्य प्रदीप भंडारी की चिकित्सा के क्षेत्र में इस अतुलनीय योगदान से प्रभावित होकर कवियित्री श्रीमती सुमिता केशवा पवलगढ़ जाकर वैद्यजी का सम्मान करते हुए उनका आभार भी जताया। इस अवसर पर उपस्थित काशीपुर की मेयर श्रीमती उषा चौधरी ने वैद्यजी के इन उपलब्धियों की भूरी-भूरी प्रशंसा की। इस मौके पर अनीता कम्बोज और अमिता कम्बोज भी मौजूद थीं।

देसी गाय के गोबर से कर रहे लाखों रुपये महीने की कमाई

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मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के दर्जनों गांवों के किसानों के लिए गाय से मिलने वाला घी-दूध नहीं बल्कि गोबर आमदनी का जरिया बन गया है। पारंपरिक रूप से खाद के रूप में इस्तेमाल किए जा रहे गोबर से देवी-देवताओं की मूर्तियां, दीपक, राखी, गमले, सजावट के सामान, अगरबत्ती, धूपबत्ती, चूड़ियां और कंगन जैसे श्रृंगार प्रसाधन की सामग्री बनाकर लाखों रुपये कमा रहे हैं।

गोबर जैसे अपशिष्ट पदार्थ को अच्छी कमाई कजरिया बनाया जा सकता है, इसे छिंदवाड़ा जिले के सौंसर में मोहगाव स्थित स्वानंद गोविज्ञान अनुसन्धान केंद्र के संचालक डॉ. जितेंद्र भकने ने साबित कर दिखाया है। एक मुलाकात में डॉ. जितेंद्र ने बताया कि उनके यहाँ देसी गाय के गोबर और गौमूत्र से बने उत्पादों की मांग विदेशों तक से आ रही है। स्वानंद गोविज्ञान अनुसन्धान केंद्र में आसपास के किसान भी गोमय से उत्पाद बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त करने आते हैं। डॉ. जितेंद्र बताते हैं कि अबतक 10 हजार के आसपास किसानों ने उनके यहाँ से प्रशिक्षण लिया है। गोबर से बनाये जानेवाले रोजमर्रा के सामानों जैसे धूपबत्ती, मच्छरमार अगरबत्ती, हवन सामग्री, के अलावा गमले, देवी-देवताओं की मूर्तियां, राखी, सजावट के सामान, चूड़ियां, कंगन, झुमके आदि श्रृंगार प्रसाधन के सामान सहित शुभ-लाभ, स्वास्तिक की आज बाजार में बहुत मांग है। त्योहारों के समय प्रशिक्षित किसानों के यहाँ से गोबर के उत्पाद मंगाकर डॉ. जितेंद्र बड़े शहरों में भेजते हैं। इस प्रकार किसानों की भी अतिरिक्त आय हो जाती है। स्वानंद गोविज्ञान केंद्र में बनाये जाने वाले सामानों के सांचे (मोल्ड) के डिजाइन भी डॉ. जितेंद्र अपनी देखरेख स्वयं बनवाते हैं और इच्छुक किसानों को बहुत कम मूल्य पर उपलब्ध करवाते हैं।

डॉ. जितेंद्र भकने लाखों के पैकेज वाली अपनी नौकरी छोड़कर 2013 में जब 24 गायों से गौशाला शुरू की तो लोग उनका उपहास उड़ाने से नहीं चूकते थे। आज जो लोग उनका उपहास उड़ाते थे वही उनकी नक़ल कर गोबर और गौमूत्र से दवाइयां और अन्य सामान बनाकर लाखों कमा रहे हैं। शुरुआत में डिजाइनदार कंडे से अपना व्यवसाय शुरू करनेवाले डॉ. जितेंद्र आज लाखों रुपये महीने कमा रहे हैं और युवाओं के रोलमॉडल बने हुए हैं।

गौशालाओं को आत्मनिर्भर बनने की पहल स्वयं करनी होगी : सुनील मानसिंगका

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भारतीय नस्ल की देसी गायों और गौवंश को बचाने और गौशालाओं के स्वावलम्बी बनने के उपायों पर बोलते हुए सुनील मानसिंगका ने कहा कि गौशाला में होने वाले प्रतिदिन के खर्च से अधिक उसमे पलने वाली गायें या गौवंश दूध, गोबर और गोमूत्र के रूप में वापस कर देती हैं। आवश्यकता है इनके वाणिज्यिक उपयोग की। नागपुर के देवलापार स्थित गो-विज्ञान अनुसन्धान केंद्र के समन्वयक सुनील मानसिंगका केंद्र में आये पत्रकारों के सवाल का जवाब देते हुए बोल रहे थे।

देवलापार अनुसन्धान केंद्र में आये पत्रकारों से बातचीत करते हुए मानसिंगका ने भारतीय पशुधन, जैविक कृषि और गौ आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर तथ्यात्मक विचार रखे। कृषि के क्षेत्र में भूमि सुधार सहित जैविक खेती अपनाने से लेकर अदुग्धा गाय या गोवत्स से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुधरने तक की बात कही। सुनील मानसिंगका ने एक ओर जहां क़त्ल के लिए ले जाई जा रही गायों को बचने के प्रयास में आने वाली कठिनाइयों के बारे में खुलकर बताया वहीं दूसरी ओर गौवंश की उपयोगिता सहित वैज्ञानिक आधार पर गाय के महत्त्व के बारे में भी बताया।

इसी कड़ी में उनसे जब पूछा गया कि भारत में शताब्दियों से गौशाला संस्कृति रही है, इसके बावजूद आज भी आदर्श और स्वावलम्बी गौशालाएं अपवाद ही बनी हुई हैं। ऐसी गौशालाएं शायद ही हों, जिन्हें हम आम जनता के सामने मॉडल के रूप में प्रस्तुत कर सकें। गौशाला संचालकों की मानसिकता आर्थिक स्वावलंबन की ओर न होकर मुख्यतः भावनात्मक दोहन कर दान एकत्र करने वाली है। ऐसे कौन से उपाय अपनाए जाएं जिनसे गौशाला आर्थिक रूप से स्वावलम्बी बन सकें। गौशालाओं के स्वावलम्बन के सवाल का जवाब देते हुए मानसिंगका ने कहा कि स्वावलम्बन, स्वाभिमान इत्यादि मन के भाव हैं इसलिए स्वावलम्बी बनने के लिए पहले परावलंबी होने के भाव को त्यागना होगा। साथ ही स्वावलम्बन की राह में आ रही परेशानियों की तह में जाकर समस्याओं के निवारण के उपाय अपनाने होंगे। हमने गौशालाओं को आर्थिक रूप से निर्भर बनाने के कई उपायों पर कार्य किया है। जरूरत है इन उपायों को अपनाने और अमल में लाने की। उन्होंने कहा कि हमने देसी तथा दूध न देनेवाली गायों को अर्थोपार्जन का जरिया बनाने के मॉडल पर कार्य किया है और इसे स्थापित भी किया है।

सुनील मानसिंगका ने कहा कि देसी गौमूत्र से फसलों की रक्षा और वृद्धि के लिए कई जैविक उर्वरक बनाये जा सकते हैं। साथ ही गोबर से मानव जीवन के दैनिक उपयोग की कई सामग्री का निर्माण हो रहा है। आज मानव की आवश्यकता रसायन रहित भोजन और प्रदुषण रहित वातावरण है। और यह स्थिति गौआधारित खेती से ही संभव है। यदि गौशालाएं इस दिशा में कार्य करें तो उनके बनाये उत्पाद से होने वाली आय से गौशाला का पूरा खर्च वहन किया जा सकता है। उन्होंने आगे इस पर बात करते हुए कहा कि बाजार की सुनिश्चितता और उपलब्धता पर भी ध्यान देना होगा। शहरों में आज गोबर से बने गमलों, धूपबत्ती, हवन सामग्री, सजावट के सामानों की भारी मांग है। इसलिए मार्केटिंग की समुचित व्यवस्था करनी होगी। मानसिंगकाजी फ़िलहाल देश के कई विश्वविद्यालयों सहित अनेक गौ-सेवी संस्थानों के साथ गौ-विज्ञान अनुसन्धान केंद्र देवलापार की अनुसंधानात्मक गतिविधियों का समन्वय कर रहे हैं। साथ ही इनके दिशा निर्देश में अदुग्धा गायों और गोवत्सों के अपशिष्ट का वाणिज्यिक उपयोग करने का प्रशिक्षण भी किसानों को केंद्र द्वारा दिया जाता है। 

जैविक खेती से बदल रही किसानों की तकदीर

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अडानी फाउंडेशन का मिल रहा सहयोग

जैविक खेती का महत्व भारत के किसानों से ज्यादा और कोई नहीं समझ सकता है। भारत में हजारों वर्षों से चली आ रही ऑर्गेनिक खेती को तब झटका लगा जब बढ़ती जनसंख्या और मौसम में बदलाव के चलते लोगों तक खाद्य वस्तुओं की तेजी से आपूर्ति करने के लिए खेती में रासायनिक उर्वरक, केमिकल्स, कीटनाशक और कई जहरीली वस्तुओं का इस्तेमाल होना शुरू कर दिया गया।

इन वस्तुओं के इस्तेमाल से न सिर्फ इंसानों की सेहत पर असर पड़ा बल्कि इससे वातावरण को भी काफी नुकसान पहुंचा। इन्हीं सब कारणों की वजह से लोगों का ध्यान एक बार फिर से जैविक खेती की ओर आकृष्ट होना शुरू हुआ है। लेकिन किसानों के पास जैविक खेती से जुड़ी ज्यादा जानकारी उपलब्ध न होने के कारण उन्हें कई प्रकार की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। किसानों की इस परेशानी को दूर करने के लिए अडानी फाउंडेशन अपनी महती भूमिका निभाते हुए गोंदिया और आसपास के जिलों के किसानों को गौ आधारित शून्य बजट जैविक खेती के लिए  न केवल न केवल प्रोत्साहित कर रहा है वरन उन्हें नागपुर के देवलापार स्थित गौ-विज्ञान अनुसन्धान केंद्र भेजकर उनके प्रशिक्षण की व्यवस्था भी कर रहा है। 

एक मुलाकात में अडानी फाउंडेशन के सीएसआर हेड नितिन शिरालकर ने जैविक खेती के महत्त्व के बारे में बताते हुए कहा कि पारम्परिक रासायनिक खेती ने न केवल हमारे स्वास्थ्य को ख़राब कर दिया है, बल्कि इसने मिटटी के स्वास्थ्य को भी ख़राब कर दिया है। भूमि की उर्वरा शक्ति का पूरी तरह से ह्रास हो चुका है, इससे बचने का एकमात्र उपाय जैविक खेती है।

नितिन शिरालकर ने बताया कि अडानी फाउंडेशन की ओर से किसानों को जैविक खेती करने के लिए प्रोत्साहित किये जाने का कार्य किया जा रहा है। उन्होंने बताया कि आसपास के गांवों के किसानों को हम देवलापार अनुसन्धान केंद्र में भेजकर उन्हें गौमूत्र से विभिन्न जैविक उर्वरक और फसलों की सुरक्षा के लिए जैविक कीटनाशक बनाने का प्रशिक्षण देते हैं। उन्होंने बताया कि फाउंडेशन के सहयोग से अबतक लगभग ढाई हजार से भी अधिक किसानों ने प्रशिक्षण लिया है। प्रशिक्षित किसानों द्वारा शून्य लगत के बावजूद अधिक उपज प्राप्त करता देखकर अगल-बगल के अन्य किसान भी गौ आधारित जैविक खेती की ओर उन्मुख हो रहे हैं।

नितिन शिरालकर ने जैविक खेती के फायदे बताते हुए कहा कि जैविक खेती करने पर भूमि, जल और वायु प्रदूषण बहुत कम होता है। इसमें किसी भी प्रकार के रासायनिक पदार्थों, कीटनाशकों और केमिकल फर्टिलाइजर्स का इस्तेमाल नहीं होता है इसलिए पौष्टिक और जहर मुक्त भोजन का उत्पादन होता है। जैविक खेती करने पर मिट्टी के पोषण को भी बढ़ावा मिलता है और इससे मिट्टी की उर्वरता में भी सुधार होता है। यह किसानों के लिए काफी लाभदायक होता है क्योकि इसमें पानी का इस्तेमाल बहुत कम होता है। जैविक खेती ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के कई अवसर प्रदान करता है जिससे किसानों और मजदूरों की आर्थिक हालातों में भी सुधार होता है।

विदेशी नस्ल की गायों ने बनाया कर्जदार, देसी गायों ने कर्ज से उबारा

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महाराष्ट्र के भंडारा जिले में डेयरी का व्यवसाय करने वाले एक किसान को विदेशी नस्ल की गायें रखना भारी पड़ गया। 15 दिन बाद ही दूध उत्पादन गिरकर 250 लीटर प्रतिदिन से 50 से 60 लीटर प्रतिदिन हो गया। बैंक का व्याज बढ़ने लगा तो हताश होकर किसान ने देसी गौवंश का पालन शुरू किया और गोमूत्र और गोबर से उत्पाद तथा जैविक खाद बनाकर आज लाखों रूपये महीने कमा रहा है।

जिले के तुमसर तालुका स्थित सिंदपुरी गांव निवासी पवन काटनकर ने बैंक से भारी कर्ज लेकर डेयरी का व्यवसाय शुरू किया। बैंक के लोन से मिले पैसे से उन्होंने विदेशी नस्ल की दुधारू गायें खरीदी, जिनसे प्रतिदिन 250 से 300 लीटर दूध प्राप्त हो रहा था लेकिन यह स्थिति ज्यादा दिन तक नहीं रही। पवन काटनकर ने बताया कि महज 15 दिन बाद ही दुग्ध उत्पादन गिरकर 50 से 60 लीटर हो गया। अचानक कुछ दिन बाद ही गायें भी बीमार होकर मरने लगीं। डॉक्टर के बताये सारे उपाय बेकार साबित हो रहे थे। इन सबसे पवन हताश हो चुके थे। उसी समय उन्हें देवालापार के गौविज्ञान अनुसन्धान केंद्र के बारे जानकारी मिली तो वहां जाकर पवन ने एक सप्ताह का प्रशिक्षण लिया। प्रशिक्षण  के साथ ही उन्हें वहां से 5 देसी नस्ल की गायें और गौवंश भी प्रदान किये गए जिनके गोबर से पवन ने सर्वप्रथम केचुआ खाद तैयार किया जिसे आसपास के जैविक खेती करने वाले किसानों ने हाथों हाथ खरीद लिया। गोबर जैसे अपशिष्ट पदार्थ सें होने वाली आय ने पवन को उत्साह से भर दिया और फिर उन्होंने अपने खुद के स्वप्नपूर्ति नामक ब्रांड से उत्पाद तैयार करना शुरू किया। आज यह ब्रांड गौ आधारित उद्योग का एक पर्याय बन चूका है।

केमिकल इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल कर नौकरी की बजाय गौ आधारित उद्योग चला रहे पवन के हमें बताया कि दूध की अपेक्षा दूध से निर्मित अन्य पदार्थ जैसे दही, पनीर, घी, खोआ, इत्यादि से अधिक आय अर्जित हो जाती है। तुमसर और भंडारा शहरों में 1 लीटर और 0.5 लीटर के पैक में दूध घरों में सप्लाई करते हैं। आर्डर पर अन्य उत्पाद भी सप्लाई करते हैं। लेकिन पवन का कहना है कि सबसे अधिक लाभ गाय के गोबर से तैयार वर्मी कम्पोस्ट यानी कि केचुआ खाद से होती है। उन्होंने बताया कि 8000 रूपये प्रति टन के भाव से वर्मी कम्पोस्ट खाद की विक्री हो जाती है। महीने में 10 से 15 टन वर्मी कम्पोस्ट तैयार हो जाती है। वर्तमान में पवन के पास दर्जनभर से अधिक भारतीय नस्ल की उन्नत किस्म की गायें और गौवंश हैं, जिनके गोबर और गौमूत्र से कई अन्य उत्पाद भी बनाये जा रहे हैं जिनमें फर्श क्लीनर, हैण्डवाश, बर्तन धोने का लिक्विड, धूपबत्ती, मच्छरमार अगरबत्ती, और दंतमंजन मुख्य हैं।

पवन का कहना है कि विदेशी नस्ल की गायों ने मुझे कर्जदार बना दिया था, लेकिन देसी नस्ल की गायों ने न केवल कर्ज से मुक्ति दिला दी बल्कि आज मेरी आमदनी लाखों रुपये महीने की हो गई है।   

किसानों के लिए वरदान है देवलापार का गौ-विज्ञान अनुसन्धान केंद्र

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गाय भारत की संस्कृति और समृद्धि की रीढ़ है – सुनील मानसिंगका

भारतीय नस्ल की गायों को बचाने और गौवंश अधारित जीविका से लगायत मानव सहित सम्पूर्ण प्रकृति की रक्षा के लिए प्रयत्नशील नागपुर के देवलापार स्थित गौ-विज्ञान अनुसन्धान केंद्र आज गौपालन और जैविक खेती करने के इच्छुक किसानों  के लिए वरदान बना हुआ है। यहाँ देश के विभिन्न क्षेत्रों से आकर किसान गौ आधारित शून्य लागत कृषि का प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं। साथ ही अदुग्धा गाय के पालन से कैसे अपनी आर्थिक उन्नति कर सकते हैं इसका भी प्रशिक्षण लेकर गोपालन का कार्य कर रहे हैं। इस केंद्र के समन्वयक हैं – श्री सुनील मानसिंगकाजी, जिनके दिशा-निर्देश में यह केंद्र गायों के अपशिष्ट का वाणिज्यिक उपयोग करने का प्रशिक्षण भी किसानों को देता है।

गौ अपशिष्ट से उत्पाद बनाने का प्रशिक्षण लेने वाले इच्छुक किसानों को देसी गायें और गौवंश केंद्र द्वारा दिए जाते हैं। कत्लखानों से बचाकर लायी गयी जिन गायों और गौवंशों का पोषण केंद्र की गौशाला में किया जाता है, उन्हीं गायों को किसानों को मुफ्त में दिया जाता है जिनकी जानकारी समय-समय पर केंद्र द्वारा ली जाती रहती है। हालाँकि केंद्र की अन्य दो और गौशालाओं में लगभग 800 गौवंश आश्रय पा रहे हैं, जिनसे दूध के अतिरिक्त गोबर और गोमूत्र भी प्राप्त होता है। प्राप्त गोबर से केंद्र में ही वर्मी कम्पोस्ट (केचुआ खाद) बनायी जाती है, जिसका उपयोग खेतों में जैविक खाद के रूप में किया जाता है। तथा गोमूत्र से अर्क और अन्य आयुर्वेदिक औषधियां बनायी जाती हैं। नागपुर के आसपास मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के सीमांत जनपदों के लाखों किसान देवलापार से गौ आधारित जैविक खेती का प्रशिक्षण ले चुके हैं। ये किसान पंचगव्य से जैविक खाद और कीटनाशक आदि घर पर ही बनाकर खेती में उपयोग करते हैं। इससे उनकी लागत शून्य हो जाती है और बेहतर उपज प्राप्त होती है। साथ ही देसी गाय के गोबर से अनेक उत्पाद जैसे गमले, धूपबत्ती, दीपक, दंतमंजन आदि तथा गोमूत्र से अर्क, फर्श क्लीनर, हैंडवाश तथा बर्तन धोने का लिक्विड आदि बनाकर अतिरिक्त आय अर्जित कर रहे हैं।

गौ– विज्ञान अनुसंधान केंद्र के समन्वयक श्री सुनील मानसिंगका गौ-आधारित जैविक खेती करने के लिए कई बड़ी कंपनियों के सहयोग से आस पास के जनपदों के किसानों को प्रोत्साहित कर रहे हैं। उन्होंने जैविक खेती के क्षेत्र में कई बड़ी उपलब्धियां हासिल करते हुए यह साबित किया है कि रासायनिक उर्वरक आधारित खेती की तुलना में जैविक खेती से अधिक उपज प्राप्त की जा सकती है और मिट्टी की उर्वरता में सुधार करने में गौ-आधारित जैविक खेती बहुत लाभदायक है। एक मुलाकात में सुनील मानसिंगकाजी ने गाय को भारत की संस्कृति और समृद्धता की रीढ़ बताते हुए कहा कि गाय की रक्षा से ही संस्कृति की रक्षा हो सकती है। उन्होंने पंचगव्य, गोबर खाद, केचुआ खाद, अमृत पानी, कामधेनु कीट नियंत्रक और गोबर गैस से होने वाले लाभ और जैविक खेती पर विस्तृत जानकारी भी दी। मानसिंगकाजी फिलहाल देश के कई विश्वविद्यालयों सहित अनेक गौ-सेवी संस्थानों के साथ गौ-विज्ञान अनुसन्धान केंद्र की अनुसंधानात्मक गतिविधियों का समन्वय कर रहे हैं।

केंद्र में पञ्चगव्य आधारित खेती के कई प्रयोग सफल हो रहे हैं। इसके अलावा गौमूत्र के चिकित्सकीय उपयोग को भी साबित किया गया है। केंद्र में सुप्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्यों की देखरेख में पंचगव्य आधारित आयुर्वेदिक औषधियों का निर्माण भी किया जाता है। 

गौ आधारित जैविक खेती करनेवाले किसानों ने रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के दुष्परिणामों के बारे में बताते हुए कहा कि जैविक विधि से खेती में उत्पन्न फसलों की गुणवत्ता तो अच्छी होती ही है साथ ही शून्य लगत पर उपज भी अधिक प्राप्त होती है। 

गौसेवा और गौचर विकास बोर्ड

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“चलो गाय की ओर … चलो गांव की और … चलो प्रकृति की और …”, भारतीय संस्कृति की इस अवधारणा को साकार करने के उद्देश्य से गुजरात सरकार ने ‘गौसेवा और गौचर विकास बोर्ड’ का गठन किया है। 

“गौसंवर्धनम … राष्ट्रवर्धनम” के आदर्श वाक्य को साकार करते हुए गौरक्षा, गोपालन, गौसंवर्धन और गाय आधारित सामाजिक, आर्थिक और आध्यात्मिक उत्थान का कार्य किया जा रहा है।

उद्देश्य और कार्य

पशु की अवैध हत्या को रोकने के लिए राज्य में कार्यरत विभिन्न संगठनों के साथ समन्वय स्थापित करना।

गोहत्या को रोकने के लिए कानूनों को सख्ती से लागू करना।

गौ सेवा विकास कार्यक्रम के अंतर्गत विभिन्न योजनाओं का क्रियान्वयन।

गाय आधारित जैविक खेती को बढ़ावा देना। विभिन्न गौशालाओं को मार्गदर्शन प्रदान कर आत्मनिर्भर बनने में मदद करना।

पंचगव्य से आर्थिक आय बढ़ाने के लिए विभिन्न परियोजनाओं का समर्थन करना।

गोमूत्र से औषधीय और कीटनाशकों और अन्य उत्पादों को बढ़ावा देना।

गायों के आर्थिक मूल्य को बढ़ाने के लिए अनुसंधान में मदद करना।

गौ रक्षा, गौ पालन और गौ प्रजनन को बढ़ावा देने के अभियान को तेज करना। 

विश्वविद्यालय स्तर पर गायों पर अनुसंधान और पीएचडी कार्यक्रमों को बढ़ावा देना।

स्कूली पाठ्यपुस्तकों में “गाय विज्ञान” विषय को शामिल करना।

गोवंश के बारे में जागरूकता फैलाना – स्कूल और कॉलेज के छात्रों के लिए ‘गाय विज्ञान’ परीक्षा आयोजित करना।

आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए पंचगव्य आधारित ग्रामीण कुटीर उद्योग, संगोष्ठियों, कार्यशालाओं, सम्मेलनों, व्याख्यान श्रृंखलाओं, मीडिया शो, पत्रिकाओं और गौकथा (उपदेश) के माध्यम से जागरूकता कार्यक्रम।

देशी पशु प्रजातियों जैसे गिर, कंकरेज, डांगी, शाहीवाल आदि के महत्व को स्थापित करने के लिए वैज्ञानिक संस्थानों को प्रोत्साहित करना।

Website : https://gauseva.gujarat.gov.in