Homeब्लॉगसमृद्धि का द्वार खोलती गौ आधारित खेती

समृद्धि का द्वार खोलती गौ आधारित खेती

भारत को कभी सोने की चिड़िया कहा जाता था। यहां के लोग प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित कर जीवन यापन करते थे। प्रकृति के चक्रानुसार कृषि कार्य करते थे जिसके फलस्वरूप पर्यावरण और जलवायु पर किसी प्रकार का प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता था। धरती की उर्वरा शक्ति में वृद्धि होती थी जिससे खेतों  से भरपूर उपज प्राप्त होती थी। देश सुखी एवं समृद्ध था।

जबकि आज के खेत यंत्रीकृत और प्रौद्योगिकी संचालित हैं और रिकॉर्ड पैदावार कर रहे हैं। लेकिन उत्पादन में यह वृद्धि एक बड़ी कीमत पर हासिल हुई है। हानिकारक रसायनों और कीटनाशकों ने हमारे भोजन को विषाक्त बना दिया है और इसकी वजह से स्वास्थ्य सम्बन्धी अनेक समस्याएं पैदा हो रही हैं।

यह सही है कि हम एक कृषि आधारित समाज हैं, और हमें अपने गांवों के अपने राष्ट्र के विकास के बारे में सोचने की जरूरत है। लेकिन हमें यह भी ध्यान देना होगा कि उपज को बढ़ाने के लिए उर्वरकों और रसायनों का अत्यधिक उपयोग मिट्टी के प्राकृतिक पोषक तत्वों को नष्ट करता है। हमें प्राकृतिक संतुलन को वापस लाने के लिए अपने दृष्टिकोण को बदलने की जरूरत है।

आज किसान कीटों को मारने के लिए और उत्पादन को बढ़ाने के लिए रसायनों का उपयोग करते हैं, लेकिन इससे फसल में नकारात्मकता आती है और साथ ही फसल में कीटनाशकों के अवशेष बरकरार रहते हैं, जिससे भोजन अस्वस्थ बन जाता है और कुछ मामलों में तो विषाक्त हो जाता है।

महात्मा गाँधी ने कहा है कि धरती में इतनी क्षमता है कि वह सब की जरूरतों को पूरा कर सकती है, लेकिन किसी के लालच को पूरा करने में वह सक्षम नहीं है

महात्मा गांधी के सोलह आना सच्चे इस वाक्य को ध्यान में रखकर जीरो बजट प्राकृतिक खेती की जाये, तो किसान को न तो अपने उत्पाद को औने-पौने दाम में बेचना पड़े और न ही पैदावार कम होने की शिकायत रहे। लेकिन सोना उगलने वाली हमारी धरती पर खेती करने वाला किसान आज लालच का शिकार हो रहा है।

कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले इस देश में रासायनिक खेती के बाद अब गौ आधारित जैविक खेती सहित सांद्रिय खेती, पंचगव्य कृषि जैसी अनेक प्रकार की विधियां अपनाई जा रही हैं और संबंधित जानकार इसकी सफलता के दावे करते आ रहे हैं।

परन्तु किसान भ्रमित है। परिस्थितियां उसे लालच की ओर धकेलती जा रही हैं। उसे नहीं मालूम उसके लिये सही क्या है ? रासायनिक खेती के बाद उसे अब जैविक कृषि दिखाई दे रही है। किन्तु जैविक खेती से ज्यादा सस्ती,सरल एवं ग्लोबल वार्मिंग (पृथ्वी के बढ़ते तापमान) का मुकाबला करने वाली “जीरो बजट प्राकृतिक खेती“ मानी जा रही है।

जीरो बजट प्राकृतिक खेती क्या है?

जीरो बजट प्राकृतिक खेती देसी गाय के गोबर एवं गौमूत्र पर आधारित है। एक देसी गाय के गोबर एवं गौमूत्र से एक किसान तीस एकड़ जमीन पर जीरो बजट खेती कर सकता है। देसी प्रजाति के गौवंश के गोबर एवं मूत्र से जीवामृत, घनजीवामृत तथा जामन बीजामृत बनाया जाता है। इनका खेत में उपयोग करने से मिट्टी में पोषक तत्वों की वृद्धि के साथ-साथ जैविक गतिविधियों का विस्तार होता है। जीवामृत का महीने में एक अथवा दो बार खेत में छिड़काव किया जा सकता है। जबकि बीजामृत का इस्तेमाल बीजों को उपचारित करने में किया जाता है। इस विधि से खेती करने वाले किसान को बाजार से किसी प्रकार की खाद और कीटनाशक रसायन खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती है। फसलों की सिंचाई के लिये पानी एवं बिजली भी मौजूदा खेती-बाड़ी की तुलना में दस प्रतिशत ही खर्च होती है ।

गाय से प्राप्त सप्ताह भर के गोबर एवं गौमूत्र से निर्मित घोल का खेत में छिड़काव खाद का काम करता है और भूमि की उर्वरकता का ह्रास भी नहीं होता है। इसके इस्तेमाल से एक ओर जहां गुणवत्तापूर्ण उपज होती है, वहीं दूसरी ओर उत्पादन लागत लगभग शून्य रहती है। गौ आधारित जैविक खेती करने वाले किसानो का कहना है कि देसी गाय के गोबर एवं गोमूत्र आधारित जीरो बजट वाली प्राकृतिक खेती कहीं ज्यादा फायदेमंद साबित हो रही है।

गौ आधारित जीरो बजट खेती ग्लोबल वार्मिंग और वायुमंडल में आने वाले बदलाव का मुकाबला करने एवं उसे रोकने में सक्षम है। इस तकनीक का इस्तेमाल करने वाला किसान कर्ज के झंझट से भी मुक्त रहता है।

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