पर्याप्त चरागाह उपलब्ध न होने के कारण 10 में से 9 पशुओं को सूखे कचरे पर गुजारा करना पड़ता है. देश भर की हालत लगभग एक जैसी है.
देश में फिलहाल लगभग एक करोड़ तीस लाख हेक्टेयर भूमि ही स्थायी चरागाह के लिए वर्गीकृत है, जो काफी नहीं है. इसके अलावा उसकी हालत भी अच्छी नहीं है. इसलिए बंजर, परती तथा खेती के अयोग्य लाखों हेक्टेयर जमीन से जो कुछ भी मिल पता है, पशु वही खाते हैं.
हमारे ग्राम्य जीवन में पशुधन की अहम भूमिका है. गांवों में आज भी ईंधन, बोझा ढोने और खींचने का मुख्य साधन पशुधन ही है. वहीं खाद्य पदार्थ और गांवों के उद्योगों का कच्चा माल बड़ी मात्रा में इनसे मिलता है. देश का किसान केवल अन्न का उत्पादक नहीं है, उसके नित्य जीवन में खेती और पशु-पालन एक दूसरे के पूरक हैं. लेकिन पानी और चारे की कमी के कारण इन जानवरों के सामने संकट खड़ा हो गया है.
बंगलूर की इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल एण्ड इकोनॉमिक चेंज के एक सर्वेक्षण के मुताबिक सूखे और हरे दोनों तरह के चारे की कमी लगातार बनी हुई है.
ज्यादातर मवेशियों को किसान फसलों के डंठल वगैरह खिलाते हैं. बाकी को बंजर जमीन में, नदियों और सड़कों के किनारे, खाली पड़ी भूमि और बिरले होते जा रहे जंगलों में अपना नसीब आजमाने के लिए छोड़ दिया जाता है.
अधिकतर चरागाहों पर दबंगों का कब्ज़ा है. चरागाह को मुक्त कराने के लिए कई बार प्रयास किए गए. लेकिन वे महज खानापूर्ति तक ही सीमित होकर रह जाते हैं. चरागाहों का क्षेत्रफल कम होने के कारण पशुओं की उत्पादकता भी घटती है.
चरागाहों को सुरक्षित व सरंक्षित रखने के लिए प्रशासनिक स्तर पर जिम्मेदारी और जबावदेही सुनिश्चित होने के बाद भी वे परिणाम नहीं आए, जो आने चाहिए थे. चरागाह खत्म होने से पर्यावरण पर नकारात्मक असर पड़ता है. पारिस्थितिकी संतुलन पर भी बुरे प्रभाव पड़ते हैं, इसलिए चरागाहों के रखरखाव की ठोस योजना होनी चाहिए.
चरागाहों को विकसित और सरंक्षित करने के लिए राजस्थान और आंध्र प्रदेश में वर्ष 2006 में एक कार्यक्रम ‘चारागाह भूमि विकास और प्रबंधन’ शुरू किया गया. इसके तहत सामाजिक संस्था और किसानों ने मिलकर निजी चरागाह तैयार किया. इस तरह के कार्यक्रम पूरे देश में चलाने की ज़रूरत है. बरसात के मौसम में चरागाहों को पुर्निजीवित और हरभरा बनाने के लिए व्यापक स्तर पर अभियान चलाया जाना चाहिए.
स्टाइलो, अंजन, दीनानाथ, धामन आदि घास उगाने से चारे की समस्या को काफी हद तक कम किया जा सकता है. नेपियर एवं गिनी घास से भी चारे को संकट कम करने में मदद मिल सकती है. एक हेक्टेयर भूमि पर उगी घास से 15 पशुओं को साल भर के लिए चारा मिल सकता है.
उत्तर प्रदेश में भी बीते दशको में चरागाह का क्षेत्रफल तेजी से घटा है. प्रदेश में सिकुडते चरागाह जानवरों का पेट भरने में नाकाम साबित हो रहे हैं.
प्रदेश के अधिकतर चरागाह पर दबंगों के कब्जे हैं या फिर वे ग्राम सभा के नक्शे से ही गायब हैं. जिले में दबंगों के कब्जे से चरागाह को मुक्त कराना प्रशासन के लिए बड़ी चुनौती है. प्रधान और लेखपालों की मिली भगत से बड़े सुनियोजित ढंग से गांवों के चरागाह को खत्म किया जा रहा है.